________________ चिन्तनीयवस्तुकृतावेतौ भविष्यत इति चेत् ।न, जल-ज्वलनौदनादिचिन्तने क्लेद-दाह-बुभुक्षोपशमादिप्रसङ्गादिति। "चिन्तया / वत्स! ते जातं शरीरकमिदं कृशम्" इत्यादिलोकोक्तेश्चिन्ताज्ञानकृतौ ताविति चेत्। तदप्ययुक्तम्, तस्याऽमूर्तत्वात्, अमूर्तस्य च / कर्तृत्वायोगात्, आकाशवत्, इत्युक्तत्वात्, “चिन्तया वत्स!" इत्यादिलोकोक्तेश्च कार्ये कारणशक्त्यध्यारोपेणौपचारिकत्वात्। खेदादेस्तदुद्भूतिरिति चेत् / कोऽयं नाम खेदादिः? / किं तान्येव मनोद्रव्याणि, चिन्तादिज्ञानं वा?। आद्यपक्षे, सिद्धसाध्यता। द्वितीयपक्षस्तु विहितोत्तर एव। न च निर्हेतुकावेतौ, सर्वदा भवनाऽभवनप्रसङ्गात्: "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात्। अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसंभवः"॥१॥इति। (शंका-) उक्त अनुग्रह या उपघात (द्रव्यमन द्वारा कृत नहीं, अपितु) चिन्तनीय वस्तु के द्वारा (किये जाते) हैं (ऐसा मानने पर, अन्यथानुपपत्ति के आधार पर द्रव्यमन को वैसा मानने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी)। (उत्तर-) आपका कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि (यदि चिन्तनीय वस्तु से अनुग्रहादि का होना मानें तो) जल, अग्नि व ओदन (भात) आदि (पदार्थों) के चिन्तन करते समय (क्रमशः, मन में) गीलापन, जलन एवं भूख की शांति आदि प्रसक्त होंगे (किन्तु ऐसा होता नहीं है, अतः चिन्तनीय वस्तु से अनुग्रहादि का होना मानना प्रत्यक्षविरुद्ध है)। (शंका-) 'हे वत्स! चिन्ता से तुम्हारा यह शरीर कृश हो गया है' -इत्यादि लोकसामान्य की उक्ति के आधार पर वे (अनुग्रह या उपघात) चिन्ताज्ञान द्वारा किये हुए हैं (-ऐसा मानना चाहिए)। (उत्तर-) आपका कहना समीचीन नहीं है, क्योंकि चिन्ताज्ञान तो अमूर्त है, और अमूर्त में कर्तृत्व नहीं हुआ करता जैसे आकाश में (कर्तृत्व नहीं होता) -यह (प्रत्युत्तर) पहले दिया जा चुका है। उक्त लोकोक्ति में 'चिन्ता के कारण' यह जो कहा जाता है, उसका कारण है- कार्य में कारण शक्ति (अर्थात् चिन्ताज्ञान रूपी कार्य में द्रव्यमन रूप कारण की शक्ति) का आरोप किया गया है, अतः वह औपचारिक कथन है (न कि वास्तविक)। (शंका-) खेद आदि से चिन्ता ज्ञान की उत्पत्ति मान लें (न कि द्रव्य मन से)? (प्रत्युत्तर-) पहले आप यह बताएं कि ये खेद आदि हैं क्या? क्या वे मनोद्रव्य ही हैं या चिन्ता आदि ज्ञान रूप हैं? प्रथम पक्ष (खेद व मनोद्रव्य को एक मानने) में 'सिद्धसाध्यता' दोष है (क्योंकि यह तो हम ही मान रहे हैं)। द्वितीय पक्ष (चिन्ता आदि ज्ञान व खेद आदि को एक) मानते हैं तो (जो सम्भावित दोष हैं, उनका) पहले ही उत्तर दिया जा चुका है। ये अनुग्रह व उपघात निर्हेतुक तो हो नहीं सकते, क्योंकि तब ये या तो सर्वदा होते रहेंगे या कभी नहीं होंगे। (कहा भी है-) यदि हेतु की कोई अपेक्षा न करे, तब या तो सर्वदा (कार्य का) सद्भाव होगा या (सर्वदा) असद्भाव / और, किन्तु यदि हेतु की अपेक्षा की जाती है, तभी (कार्य रूप) पदार्थों का कभी-कभी होना सम्भव होता है। NA 328 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----