________________ रूपादिभ्यो भिन्ने गृहीते प्रवर्तते एवायं विमर्श:- किमयं शाङ्खः शा? वा शब्द?।शार्ङ्गश्चेत् किं महिषीशृङ्गोद्भवः, महिषशृङ्गजो वा?। महिषीशृङ्गसंभवश्चेत्, किं प्रसूतमहिषीशृङ्गसंभवः, अप्रसूतमहिषीशृङ्गसमुद्भूतो वा? इत्यादि। यतश्चानन्तरमित्थं विमर्शेनेहाप्रवृत्तिर्न भवति, अन्तप्राप्तेः, क्षयोपशमाभावाद् वा, स पुनरपायः॥ तदेतत् परोक्तं दूषयितुमाह-'तं नो इत्यादि' तदेतत् परोक्तं न। कुतः? इत्याह- बहवश्च ते दोषाश्च तेषां भाव उपनिपातस्तस्मात्, एवं हि सर्वायुषाऽप्यपायप्रवृत्तिर्न स्यात्, यथोक्तविमर्शप्रवृत्तेरनिष्ठितत्वात्। न च पूर्वमनीहिते प्रथमोऽपि शब्दनिश्चयो युक्तः, यतश्च पूर्वमीहा प्रवर्तते नाऽसाववग्रहः, किन्त्वपाय एवेत्यादि सर्वं पुरस्ताद् वक्ष्यते॥ इति गाथार्थः॥१८१॥ अन्ये त्वीहायां विप्रतिपद्यन्ते, तन्मतमुपन्यस्य दूषयत्राह ईहा संसयमेत्तं केई, न तयं तओ जमन्नाणं। मइनाणंसा चेहा कहमन्नाणं तई जुत्तं?॥१८२॥ [संस्कृतच्छाया:- ईहा संशयमानं केचित्, न तत् सको यदज्ञानम्। मतिज्ञानांशश्चेहा कथमज्ञानं सा युक्तम्? // 182 // ] का है, या भैंसे के सींग (से बने किसी वाद्य) का शब्द है? यदि वह शब्द भैंस के सींग (वाले वाद्य) से उत्पन्न है तो प्रसूत (बच्चा पैदा कर चुकी) भैंस के सींग का है या अप्रसूत भैंस के सींग (के वाद्य) का है? इत्यादि। जिस (विमर्श) के बाद या तो अंतिम निर्णय हो जाए, या फिर ज्ञान का ऐसा क्षयोपशम हो (कि ईहा ज्ञान की अपेक्षा ही न रहे) तो ईहा की प्रवृत्ति नहीं होती, वह तो 'अपाय' (ही) है। उपर्युक्त परकीय मत को दूषित सिद्ध करने हेतु कह रहे हैं- (तद् नो)। अर्थात् परकीय मत (उचित/यथार्थ) नहीं, (प्रश्न) क्यों? उत्तर दिया- चूंकि बहुत से दोष यहां संभावित हैं, इसलिए (परकीय मत निर्दोष नहीं है)। क्योंकि (परकीय मत को माना जाये तो) सारी आयु-काल में भी 'अपाय' की प्रवृत्ति नहीं हो पाएगी, क्योंकि उक्त विमर्श की प्रवृत्ति की कोई काल-सीमा नहीं है। जिस पदार्थ की पहले ईहा नहीं की गई हो, उसका शब्द-निश्चय मानना युक्तियुक्त नहीं, चूंकि जिसके पहले ईहा प्रवृत्त होती है, वह अवग्रह नहीं (हो सकता), किन्तु वह अपाय ही है- इत्यादि सारी बातें आगे कहेंगे॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 181 // (ईहा व संशय में अन्तर) (कुछ) दूसरे लोग 'ईहा' को लेकर आपत्ति उठाते हैं, उनके मत को उपस्थापित करते हुए, उसमें दूषण उद्भावित कर रहे हैं // 182 // ईहा संसयमेत्तं केई, न तयं तओ जमन्नाणं / मइनाणंसा चेहा कहमन्नाणं तई जुत्तं? // [(गाथा-अर्थ :) कुछ (व्याख्याता) ईहा को संशय कहते हैं, किन्तु जो (संशय रूप) अज्ञान होगा, वह ईहा ज्ञान कैसे हो सकता है? ईहा जब मतिज्ञान का अंश है, और वह (संशय रूप) अज्ञान भी है- ऐसा कैसे हो सकता है)?] MMS 266 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------