________________ तत्त्व-भेद-पर्यायैर्व्याख्या, तत्र तत्त्वं व्यञ्जनावग्रहस्य स्वरूपमुक्तम्। अथ तस्य भेदान् निरूपयितुमाह नयण-मणोवजिदियभेयाओ वंजणोग्गहो चउहा। उवघायाणुग्गहओ जं ताई पत्तकारीणि॥ 204 // [संस्कृतच्छाया:- नयन-मनोवर्जेन्द्रियभेदाद् व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्धा। उपघातानुग्रहतो यत् तानि प्राप्तकारीणि॥] सच व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्धा भवति। कुतः?, इत्याह- नयन-मनोवर्जेन्द्रियभेदात्। इदमुक्तं भवति-विषयस्य, इन्द्रियस्य च यः परस्परं संबन्धः प्रथममुपश्लेषमात्रम्; तद्-व्यञ्जनावग्रहस्य विषयः। स च विषयेण सहोपश्लेषः प्राप्यकारिष्वेव स्पर्शन-रसन-घ्राणश्रोत्र-लक्षणेषु चतुरिन्द्रियेषु भवति, न तु नयन-मनसोः। अतस्ते वर्जयित्वा शेषस्पर्शनादीन्द्रियचतुष्टयभेदाच्चतुर्विध एव व्यञ्जनावग्रहो भवति। नन्विन्द्रियत्वे तुल्येऽपि केयं मुखपरीक्षिका- यच्चतुषु स्पर्शनादीन्द्रियेषु सोऽभ्युपगम्यते, नान्यत्र?, इत्याह- ‘उवधायेत्यादि'। (व्यअनावग्रह के भेद) तत्त्व (स्वरूप), उसके भेद एवं उसके पर्याय (आदि)-इनका निरूपण करना (ही) व्याख्या होती है। तो (अभी तक) व्यञ्जनावग्रह का तत्त्व यानी उसके स्वरूप का कथन तो हो चुका / अब उसके भेदों का निरूपण कर रहे हैं // 204 // नयण-मणोवजिदियभेयाओ वंजणोग्गहो चउहा। उवघाया-णुग्गहओ जं ताई पत्तकारीणि || [(गाथा-अर्थ :) नेत्र और मन को छोड़ कर (अवशिष्ट रहीं श्रोत्र, रसना, घ्राण, त्वचा -इन चार) इन्द्रियों के भेद से व्यअनावग्रह के चार भेद हो जाते हैं। वे (चार इन्द्रियां ही) प्राप्यकारी हैं, क्योंकि उनमें (ही) उपघात व अनुग्रह को (होते) देखा जाता है।] व्याख्याः - वह व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का होता है। (प्रश्न-) कैसे? (अर्थात् पांच प्रकार का क्यों नहीं, क्योंकि इन्द्रियां तो पांच हैं।) उत्तर दिया- नेत्र व मन -इन दो इन्द्रियों को छोड़कर (अवशिष्ट चार) इन्द्रियों के (आधार पर किये जाने वाले) भेद के कारण (चार ही भेद हैं)। तात्पर्य यह है कि विषय व इन्द्रिय का जो परस्पर सम्बन्ध (सम्पर्क) होता है, वही व्यअनावग्रह का विषय है। वह जो विषय के साथ (इन्द्रियों का) सम्पृक्त होना है, वह प्राप्यकारी इन्द्रियों- स्पर्शन (त्वचा), रसना (जिह्वा), घ्राण (नासिका), श्रोत्र (कान) -इन चार इन्द्रियों में ही होता है, नेत्र इन्द्रिय व मन में नहीं। अतः इन दोनों को छोड़ देने से, स्पर्शन (त्वचा) आदि शेष चार इन्द्रियों के आधार पर भेद (किये जाने) से व्यञ्जनावग्रह के चार ही भेद होते हैं। (शंका-) क्यों जी! इन्द्रियों के रूप में तो सभी इन्द्रियां समान हैं, फिर भी यह कौन-सी मुखपरीक्षिका (जांचने-परखने की कसौटी) है जिससे पूर्वोक्त चार इन्द्रियों (को ही प्राप्यकारी माना -------- विशेषावश्यक भाष्य -- ------