________________ अत्राऽपरः प्राह- नयनाद् नायना रश्मयो निर्गत्य प्राप्य च रविबिम्बरश्मय इव वस्तु प्रकाशयन्तीति नयनस्य प्राप्यकारिता प्रोच्यते। सूक्ष्मत्वेन, तैजसत्वेन च तेषां वयादिभिर्दाहादयो न भवन्ति, रविरश्मिषु तथादर्शनात्।। तदेतदयुक्ततरम्, तेषां प्रत्यक्षादिप्रमाणाग्राह्यत्वेन श्रद्धातुमशक्यत्वात्, तथाविधानामप्यस्तित्वकल्पनेऽतिप्रसङ्गात्। वस्तुपरिच्छेदाऽन्यथानुपपत्तेस्ते सन्तीति विकल्प्यन्त इति चेत्। न, तानन्तरेणाऽपि तत्परिच्छेदोपपत्तेः, न हि मनसो रश्मयः सन्ति, न च तदप्राप्तं वस्तु न परिच्छिनत्ति, वक्ष्यमाणयुक्तितस्तस्य तत्सिद्धेः। न च रविरश्म्युदाहरणमात्रेणाऽचेतनानां नयनरश्मीनां वस्तुपरिच्छेदो युज्यते, नख-दन्त-भालतलादिगतशरीररश्मीनामपि स्पर्शविषयवस्तुपरिच्छेदप्रसङ्गात् / इत्यलं विस्तरेण // इति गाथार्थः // 211 // तदेवमञ्जन-ज्वलनादिविषयविहितानुग्रहोपघातशून्यत्वलक्षणहेतोरप्राप्यकारितां चक्षुषः प्रसाध्य हेत्वन्तरेणापि तस्य तां प्रसाधयितुमाह यहां दूसरे (विरोधी, प्रतिपक्षी) ने (पुनः आक्षेप प्रस्तुत करते हुए) कहा- (आप ऐसा क्यों नहीं मान लेते कि) नेत्र से नयन-रश्मियां बाहर निकलती हैं और वे रविकिरणों की तरह (ही) वस्तु को प्रकाशित करती हैं, इस प्रकार नेत्र की प्राप्यकारिता (निर्दोष) है। यदि कहो कि देखने की क्रिया में अग्नि आदि से आंख जल नहीं जाती -इसमें आखिर क्या कारण है, तो हमारा इस सम्बन्ध में कहना यह है कि जैसा कि सूर्य-किरणों में हम देखते हैं कि (वे अग्नि आदि से नहीं जलतीं, उसी तरह इन नेत्रीय किरणों के) सूक्ष्म व तैजस होने से उनका अग्नि आदि से दाह आदि (उपघात) नहीं होता। (इस तर्क के प्रत्युत्तर में नेत्र की अप्राप्यकारिता के समर्थक भाष्यकार का कथन-) (पूर्वपक्षी का) उपर्युक्त कथन तो और भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष आदि किसी भी प्रमाण से वह ग्राह्य (प्रमाणित) नहीं होता, इसलिए उस पर श्रद्धान (या विश्वास) नहीं किया जा सकता (अर्थात् उसे मान्य नहीं किया जा सकता)। और, यदि वैसे (अर्थात् अप्रामाणिक व अविश्वसनीय) पदार्थों के अस्तित्व की कल्पना करने लगेगें तो अनेकानेक दोष प्रसक्त होंगे। (शंका-) वस्तु के ज्ञान (रूपदर्शनादि) की संगति उन पदार्थों के अस्तित्व को मानने से ही होती है। अतः नयन-रश्मि आदि पदार्थ हैं- यह कल्पना करनी पड़ती है। (उत्तर-) यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उन (नयन-रश्मि जैसे कल्पित पदार्थों) के बिना भी विषय-ज्ञान (रूपदर्शनादि) की संगति हो जाती है। उदाहरणार्थमन की तो कोई रश्मियां हैं नहीं, (फिर भी) वह अस्पृष्ट वस्तु को नहीं जानता हो- ऐसा तो नहीं, और आगे कही जाने वाली युक्ति से अप्राप्यकारिता सिद्ध भी की जाएगी। सूर्यकिरणों के उदाहरण मात्र से अचेतन नेत्रीय रश्मियों द्वारा वस्तु-ज्ञान मानना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि (रश्मियां वस्तु-ज्ञान कराने में सक्षम है) ऐसा मानने पर तो नख, दन्त, भाल आदि शारीरिक प्रदेशों की रश्मियों द्वारा भी समस्त वस्तुओं का ज्ञान होने लगेगा (किन्तु होता नहीं)। अब, और अधिक विस्तार (से कहने) की आवश्यकता नहीं रह गई है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 211 // / इस प्रकार, 'अंजन व अग्नि आदि (ज्ञेय) विषयों द्वारा नेत्र का (नेत्र में) उपघात या अनुग्रह नहीं होना' -इस हेतु से नेत्र की अप्राप्यकारिता की सिद्धि करने के अनन्तर, अब भाष्यकार अन्य हेतु से भी उसकी सिद्धि कर रहे हैं ----- Ma 310 -- -------- विशेषावश्यक भाष्य