________________ अयं नियमः- इदमेवाऽस्माभिर्नियम्यत इत्यर्थः। किं तत्?, इत्याह- रूपस्य देशो रूपदेश आदित्यमण्डलादिसमाक्रान्तप्रदेशरूपस्तं गत्वोत्प्लवनतस्तं समाश्लिष्य चक्षुर्न पश्यति न परिच्छिनत्ति, अन्यस्याऽश्रुतत्वाद् रूपम् इति गम्यते। पत्तं सयं वत्ति-स्वयं वाऽन्यत आगत्य चक्षुर्देशं प्राप्त समागतं रूपं चक्षुर्न पश्यति, किन्त्वप्राप्तमेव योग्यदेशस्थं विषयं तत् पश्यति // अत्राह पर:- नन्वनेन नियमेनाऽप्राप्यकारित्वं चक्षुषः प्रतिज्ञातं भवति। न च प्रतिज्ञामात्रेणैव हेतूपन्यासमन्तरेण समीहितवस्तुसिद्धिः। अतो हेतुरिह वक्तव्यः। 'जमणुग्गहाइसुण्णं' ति इत्यनेन पूर्वोक्तगाथावयवेन विषयकृतानुग्रहोपघातशून्यत्वलक्षणोऽयमभिहित एवेति चेत्। अहो! जराविधुरितस्येव सूरेर्विस्मरणशीलता, यतो 'जमणुग्गहाइसुण्णंति' इत्यनेन विषयादनुग्रहोपघातौ चक्षुषो निषेधयति, ‘डज्जेज्ज पाविउं रविकराइणा फरिसणंव' इत्यादिना तु पुनरपि ततस्तौ तस्य समनुजानीते, अतो न विद्मः, कोऽप्येष वचनक्रम इति। व्याख्याः- (अयं नियमः) हमारी ओर से उपस्थापित 'नियम' (नियत सिद्धान्त) यही है। (प्रश्न-) वह (नियम) क्या है? (उत्तर-) कह रहे हैं- ('रुपदेशं गत्वा' इत्यादि)। रूपं (संस्थान, आकारादि) का जो देश, (प्रदेश है) (जैसे) आदित्य-मण्डल से घिरा हुआ प्रदेशात्मक जो रूप है, (उसे जब नेत्र इन्द्रिय देखती है, तो वह) उसके पास जाकर, या उड़कर, उसे आलिंगित (स्पृष्ट) कर नहीं देखती, नहीं जानती। (आदित्य-मण्डलीय प्रदेश को) 'रूप' इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि वहां रूप के सिवा कुछ और है- ऐसा सुना नहीं गया। (प्राप्तं स्वयं वा) नेत्र स्वयं अन्य (पदार्थ से पृथक् भूत अपने) स्थान से आकर, किसी देशविशेष को प्राप्त कर 'रूप' को नहीं देखती, अपितु अपने योग्य (ग्राह्य विषय) देश में स्थित (रूप) विषय को वह (दूरस्थित होकर) देखती है। __ यहां (चक्षु को अप्राप्यकारी न मानने वाले) अन्य (विरोधी) पक्ष की ओर से आगे कहा जा रहा है (शंका-): आपके उक्त नियम (स्वसिद्धान्त) से तो नेत्र इन्द्रिय की अप्राप्यकारिता उद्घोषित होती है, किन्तु (उपयुक्त) हेतु की उपस्थापना के बिना, मात्र प्रतिज्ञा-कथन से तो अभीष्ट (कथ्य, पक्ष) की सिद्धि नहीं होती। इसलिए यहां (आपको कोई उपयुक्त) 'हेतु' बताना चाहिए। यदि (नेत्र अप्राप्यकारी मानने वाले) आप कहें कि पूर्वोक्त (सं. 209) गाथा के अंशभूत 'यदनुग्रहादिशून्यम्' इस कथन से 'विषयकृत अनुग्रह व उपघात से (नेत्रेन्द्रिय का) रहित होना' (यह हेतु) कहा ही गया है, तो (निश्चय ही यह) आप 'सरि' (आचार्य) को मानों बढापे ने मार दिया है और भूलने की आदत आपकी हो गई है। क्योंकि 'यदनुग्रहादिशून्य' इस (हेतु के) कथन से (तो आप एक तरफ) नेत्र इन्द्रिय में विषय-कृत अनुग्रह व उपघात होने का निषेध कर रहे हैं, किन्तु (तुरन्त दूसरी तरफ) 'दह्यत प्राप्तुं रविकरादिना स्पर्शनमिव' (गाथा-210) इत्यादि कथन से फिर उस (अनुग्रह व उपघात) का ही समर्थन कर रहे हैं, अतः हम नहीं समझ पा रहे हैं (कि आपका वास्तविक पक्ष क्या है)। आपका (परस्पर-विरुद्ध) कथन करने का क्रम (तरीका) तो निराला ही है!! MAL 308 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------