________________ यद् यस्मात् तान्येव स्पर्शन-रसन-घ्राण-श्रोत्रलक्षणानि चत्वारीन्द्रियाणि प्राप्तकारीणि, न तु नयन-मनसी। ततो यथोक्तेन्द्रियचतुष्कभेदाच्चतुर्विध एवाऽसौ भवति, इति काऽत्र मुखपरीक्षिका? इति। तत्र विषयभूतं शब्दादिकं वस्तु प्राप्त संश्लेषद्वारेणाऽऽसादितं कुर्वन्ति परिच्छिन्दन्तीति प्राप्तकारीणि प्राप्यकारीणि स्पृष्टार्थग्राहिणीत्यर्थः। ___कुतः पुनरेतान्येव प्राप्यकारीणि?, इत्याह- उपघातश्चानुग्रहश्चोपघाताऽनुग्रहौ, तयोर्दर्शनात्- कर्कशकम्बलादिस्पर्शने, त्रिकटुकाद्यास्वादने, अशुच्यादिपुद्गलाऽऽघ्राणे, भेर्यादिशब्दश्रवणे, त्वक्षणनाद्युपघातदर्शनात्, चन्दनाऽङ्गना-हंसतूलादिस्पर्शने, क्षीर-शर्कराद्यास्वादने, कर्पूरपुद्गलाद्याघ्राणे, मृदु-मन्द्रशब्दाद्याकर्णने तु शैत्याद्यनुग्रहदर्शनादित्यर्थः। नयनस्य तु निशितकरपत्रसेल्ल-भल्लादिवीक्षणेऽपि पाटनाद्युपघातानवलोकनात्, चन्दनाऽगुरु-कर्पूराद्यवलोकनेऽपि शैत्याद्यनुग्रहाननुभवात्। मनसस्तु वयादिचिन्तनेऽपि दाहाद्युपघाताऽदर्शनात्, जल-चन्दनादिचिन्तायामपि च पिपासोपशमाद्यनुग्रहासंभवाच्च // इति गाथार्थः॥२०४॥ जाता है और उन्हीं) के आधार पर (व्यञ्जनावग्रह के) चार ही भेद किये जाते हैं? (उत्तर-) प्राप्तकारी या प्राप्यकारी इन्द्रियां (वे चार ही इसलिए हैं, क्योंकि वे) शब्दादिविषयभूत वस्तु को, उसके साथ संशूष-करती हुईं, प्राप्त करती हैं, उपलब्ध करती हैं और उन्हें ज्ञेय बनाती हैं। तात्पर्य यह है कि वे इन्द्रियां स्पृष्टार्थग्राहिणी (अपने साथ स्पृष्ट हुए पदार्थ को ही ग्रहण करने वाली) होती हैं (अतः वे ही प्राप्यकारी हैं, नेत्र व मन नहीं)। (प्रश्न-) यह क्या कारण है कि ये चार ही इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं (अन्य, नेत्र व मन नहीं)? उत्तर दे रहे हैं- (उपघात-अनुग्रहतः)। उन (चारों में ही) उपघात व अनग्रह का होना देखा जाता है। * तात्पर्य यह है कि जैसे कठोर कम्बल के स्पर्श से, त्रिविध कटु पदार्थों (कडुवे, तीखे, चरपरे पदार्थों) के खाने (या चखने) से, अशुचि पुद्गलों (दुर्गन्धमय, अपवित्र पदार्थों) को सूंघने से, भेरी आदि (वाद्यों) की (तीव्रतम) आवाज को सुनने से, त्वचा पर आघात आदि इन्द्रियोपघात दृष्टिगोचर होता है। इसी तरह, चन्दन, कामिनी (-शरीर), हंस व (मखमली) रूई आदि के स्पर्श से, दूध-चीनी के * आस्वादन से, कपूर पुद्गलों को सूंघने से, मन्द-मन्द शब्दों (भरे संगीत आदि) को सुनने से (सम्बद्ध इन्द्रियों में) अनुग्रह (अनुकूलता का अनुभव) होता देखा जाता है। जहां तक नेत्र इन्द्रिय (की बात है, उसमें) तो तीखी धार वाले आरे, बी, भाले आदि को देखने से भी विदारित होने आदि उपघात (प्रतिकूलता प्रभाव) का होना दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी तरह, चन्दन, अगुरु (अगर), कपूर आदि को देखने से भी शैत्य आदि अनुग्रह होने की अनुभूति नहीं होती। मन के भी अग्नि आदि सम्बन्धी चिन्तन करने से दाह (जलने) आदि उपघात (प्रतिकूल प्रभाव) का होना अनूभूति में नहीं आता। उसी तरह जल व चंदन आदि के चिन्तन से प्यास बुझ जाने आदि अनुग्रह का होना संभव नहीं होता (इसलिए नेत्र व मन प्राप्यकारी इन्द्रियों में परिगणित नहीं किये गये) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 204 // -- विशेषावश्यक भाष्य - - - - -29