________________ [संस्कृतच्छाया:- यदि वाऽज्ञानमसंख्येयसमयशब्दादिद्रव्यसद्भावे / कथं चरमसमयशब्दादिद्रव्यविज्ञानसामर्थ्यम्॥] * वाशब्दः पातनासूचकः, सा च कृतैव। ततश्च हन्त! यद्यज्ञानं व्यञ्जनावग्रह : / क्व सति?, इत्याह - असंख्येयसमयशब्दादिद्रव्यसद्भावेऽपि सति, इत्यपिशब्दो गम्यते। कथं तर्हि चरमसमयशब्दादिद्रव्याणां विज्ञानजननसामर्थ्यम्? न कथञ्चिदित्यर्थः। इदमुक्तं भवति- व्यञ्जनावग्रहे तावत् प्रतिसमयमसंख्येयान् समयान् यावच्छ्रोत्रादीन्द्रियैः सह शब्दादिविषयद्रव्याणि संबध्यन्ते। ततश्च यद्यसंख्येयसमयान् यावच्छ्रोत्रादीन्द्रियैः सह शब्दादिविषयसंबन्धसद्भावेऽपि सति व्यञ्जनावग्रहरूपं ज्ञानं नाभ्युपगम्यते, कथं तर्हि चरमसमये श्रोत्रादीन्द्रियैः सह संबद्धानां शब्दादिविषयद्रव्याणां परेणाऽप्यर्थावग्रहलक्षणविज्ञानजननसामर्थ्य मिष्यते?, तदभ्युपगन्तुं न युज्यत इति भावः। यदि हि शब्दादिविषयद्रव्याणां श्रोत्रादीन्द्रियैः सह संबन्धे आद्यसमयादेवाऽऽरभ्य ज्ञानमात्रा काचित् प्रतिसमयमाविर्भवन्ती नाभ्युपगम्यते, तर्हि चरमसमयेऽप्यकस्मादेवैषा न युज्यते, तथा च सत्यर्थावग्रहादिज्ञानानामप्यनुदयप्रसङ्गः॥ इति गाथार्थः // 20 // [(गाथा-अर्थ :) अथवा, असंख्येय समय तक रहने वाले शब्दादि द्रव्य के अस्तित्व में भी यदि (आप) अज्ञान रूपता मानते हो तो चरम समय के शब्दादि द्रव्य में ज्ञान-उत्पादन की सामर्थ्य कैसे हो पाएगी?] व्याख्याः - 'वा' शब्द (नयी बात की प्रस्तावना का सूचक है जो यहां की गई है। इस प्रकार, खेद की बात है- यदि आप व्यअनावग्रह को अज्ञान कहते हैं। (प्रश्न-) क्या (अनर्थ) कर दिया कि खेद की बात है? उत्तर दिया- (असंख्येयसमय इत्यादि)। असंख्येय समय तक रहने वाले शब्दादि द्रव्य के होने पर भी (व्यञ्जनावग्रह को अज्ञान कहना, निश्चय ही खेद की बात ही है)। (यदि वह अज्ञान रूप हो तो) चरम समय में होने वाले शब्दादि द्रव्यों में ज्ञानोत्पादकता की सामर्थ्य कैसे (कहां से) आई? अर्थात् कथमपि नहीं आ सकती (ऐसी स्थिति में अर्थावग्रह की उत्पत्ति नहीं हो पाएगी)। .. तात्पर्य यह है कि व्यअनावग्रह में तो प्रतिसमय असंख्येय समय तक श्रोत्रादि इंद्रियों के साथ शब्दादि विषय-द्रव्यों का सम्बन्ध रहता है। तब यदि असंख्येय समय तक शब्दादि विषय-सम्बन्ध होने पर भी, व्यअनावग्रह को 'ज्ञान' नहीं माना जाये तो (अर्थावग्रह होने से पूर्व व्यञ्जनावग्रह के) चरम समय में श्रोत्रादि इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध शब्दादि विषय द्रव्यों में अर्थावग्रह लक्षण ज्ञान के उत्पादन की सामर्थ्य को 'पर' (यानी पूर्वपक्षी) किस आधार पर मानता है? अर्थात् उसके लिए ऐसा मानना कथमपि उपयुक्त (तर्कसंगत) नहीं लगता। यदि शब्दादि विषय-द्रव्यों को श्रोत्रादि इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध हो रहा है, तब प्रथम समय से ही ज्ञान की कुछ-न-कुछ मात्रा (सत्ता) प्रतिसमय प्रवर्तमान रहती है (ऐसा मानना पड़ेगा), यदि ऐसा नहीं मानते हैं तो चरम समय में अकस्मात् ही इस (ज्ञानोत्पादकता) का होना युक्तियुक्त नहीं है, और तब (अकस्मात् ज्ञानोत्पादकता नहीं आए तो) फिर अर्थावग्रह आदि ज्ञान का उदय भी नहीं हो सकेगा // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 200 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 293 र