________________ यस्माद् व्यतिरेकाद्, अन्वयाद्, उभयाद् वा भूतार्थविशेषावधारणं कुर्वतो योऽध्यवसायः, स सर्वोऽप्यपाय: प्रस्तुतस्थाण्वादिवस्तुनिश्चयः, न तु सद्भूतार्थविशेषावधारणं धारणेति भावः, तस्माद् न दोषः॥ आह- ननु यथा मया व्याख्यायते- सद्भूतार्थविशेषावधारणं धारणा, तथा किं कश्चिद् दोषः समुपजायते, येनाऽऽत्मीयव्याख्यानपक्षे इदमित्थमभिधीयते 'न दोषः' इति?। एतदाशङ्क्याह- 'भेए वेत्यादि'। वाशब्दः पातनायां गतार्थः। व्यतिरेकोऽपायः, अन्वयस्तु धारणा, इत्येवं मतिज्ञानतृतीयभेदस्याऽपायस्य भेदेऽभ्युपगम्यमाने पञ्च वस्तूनि पञ्च भेदा भवन्ति, 'आभिनिबोधिकज्ञानस्य' इति गम्यते। तथाहिंअवग्रहेहाऽपायधारणालक्षणाश्चत्वारो भेदास्तावत् त्वयैव पूरिताः, पञ्चमस्तु भेदः स्मृतिलक्षणः प्राप्नोति- अविच्युतेः स्वसमानकालभाविन्यपायेऽन्तर्भूतत्वात्, वासनायास्तु स्मृत्यन्तर्गतत्वेन विवक्षितत्वात्, स्मृतेरनन्यशरणत्वाद् मतेः पञ्चमो भेदः प्रसज्ज्यत इति भावः॥ व्याख्याः - चूंकि व्यतिरेक, अन्वय या 'अन्वय व व्यतिरेक' -इन दोनों के आधार पर सद्भूत पदार्थ के विशेषों का अवधारण करते हुए व्यक्ति का जो अध्यवसाय है, अर्थात् प्रस्तुत वृक्षादि वस्तु से सम्बन्धित समस्त निश्चय 'अपाय' है, सद्भूतपदार्थ के विशेष का अवधारण रूप धारणा नहीं है, अतः कोई दोष नहीं [किन्तु 'तदन्यविशेष-अपनयन मात्र' को अपाय मानने वाले परकीय व्याख्यान में उस 'सद्भूतपदार्थविशेष-अवधारण' को 'अपाय' न मान कर 'धारणा' माना जा रहा है, अतः दोष संभावित है।] (अब 'सद्भूतार्थविशेष-अवधारण तो धारणा है' -इस व्याख्यान के पक्षधरों की ओर से) यहां शंका की जा रही है- जैसा हमने व्याख्यान किया है कि सद्भूत पदार्थ के विशेष का अवधारण 'धारणा' है, उसमें कोई दोष कैसे है? और आप भी ऐसा दृढ़ता (इदमित्थं) पूर्वक कैसे कह सकते हैं कि आपके व्याख्यान में कोई दोष नहीं है (जब कि जैसा दोष आप हमारे व्याख्यान में बता रहे हैं, वैसा ही दोष तो आपके व्याख्यान में भी संभावित है)। उपर्युक्त आशंका (पूर्वपक्षीय कथन) को दृष्टि में रख कर (भाष्यकार) कह रहे हैं- भेदे वा इत्यादि। यहां 'वा' शब्द की सार्थकता नवीन विकल्प प्रस्तुत करने (पातना) का सूचक है, अतः उसकी यहां सार्थकता है। व्यतिरेक 'अपाय' है, अन्वय 'धारणा' है -इस प्रकार मति ज्ञान के तृतीय भेद 'अपाय' के दो भेद मानने पर तो (पंच वस्तूनि) आभिनिबोधिकज्ञान के पांच भेद हैं- ऐसा ज्ञात (सिद्ध) होता है। अवग्रह, ईहा, अवाय व धारणा -ये चार भेद तो आपने पूर्ण कर लिये, ऐसी स्थिति में स्मृतिलक्षण रूप पांचवां भेद प्रसक्त होता है (अर्थात् मानना पड़ सकता है)। तात्पर्य यह है कि अविच्युति तो स्वसमानकालभावी 'अपाय' में अन्तर्भूत हो गई, वासना का भी स्मृति के अन्तर्गत ही होना विवक्षित है, अब स्मृति के लिए कोई अन्य शरण नहीं होने से, उसे मति का पांचवां भेद मानना पड़ेगा। - 274 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------