________________ एतदेव भावयन्नाह सा भिन्नलक्खणाऽवि हु धिइसामन्नेण धारणा होइ। जह उग्गहो दुरूवो उग्गहसामन्नओ एक्को॥१९२॥ [संस्कृतच्छाया:-सा भिन्नलक्षणाऽपि खलु धृतिसामान्येन धारणा भवति / यथाऽवग्रहो द्विरूपोऽवग्रहसामान्यत एकः॥] सा धारणा, अविच्युति-वासना-स्मृतीनां भिन्नस्वरूपत्वेन भिन्नलक्षणाऽपि सती धारणासामान्याव्यतिरेकादेकैव भवति। यथाऽवग्रहो व्यञ्जनाऽर्थावग्रहभेदाद् द्विरूपोऽप्यवग्रहसामान्याव्यतिरेकादेकः परस्याऽपि सिद्धः, अन्यथा मतेः पञ्चविधत्वापत्तेः॥ इति - गाथार्थः // 192 // पूर्वोक्त (प्रत्युत्तर) को ही स्पष्ट करते हुए (आगे की गाथा) कह रहे हैं // 192 // सा भिन्नलक्खणाऽधि हु धिइसामन्नेण धारणा होइ। जह उग्गहो दुरूवो उग्गहसामन्नओ एक्को | [(गाथा-अर्थ :) अवग्रह के दो भेदों वाला होते हुए भी, जिस प्रकार अवग्रह सामान्य के रूप में वह एक (ही) है, उसी तरह भिन्न-भिन्न स्वरूपों वाली होने पर भी धृति-सामान्य के आधार पर 'धारणा' (एक ही) है। व्याख्याः- अविच्युति, वासना व स्मृति -इन भिन्न-भिन्न (तीन) स्वरूपों के कारण भिन्नभिन्न स्वरूपों वाली होते हुए भी धारणा सामान्य से अव्यतिरिक्त (अपृथक्, अभिन्न) होने के कारण, वह धारणा एक ही होती है। (यह उसी प्रकार है) जैसे परकीय (आप प्रतिवादी-पूर्वपक्षी) के मत में व्यञ्जनावग्रह व अर्थावग्रह -इन दो भेदों वाला भी अवग्रह, अवग्रह-सामान्य से अपृथक् होने के कारण, एक ही माना गया है, अन्यथा (उसे आप दो मानेंगे तो आपके मत में भी) मतिज्ञान के पंचविध होने की आपत्ति उठ खड़ी होगी। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 192 // -- विशेषावश्यक भाष्य --