________________ अत्राऽऽक्षेपं, परिहारं चाभिधित्सुराह अण्णाणं सो बहिराइणं व तक्कालमणुवलंभाओ। न तदंते तत्तो च्चिय उवलंभाओ तओ नाणं // 195 // [संस्कृतच्छाया:- अज्ञानं स बधिरादीनामिव तत्कालमनुपलम्भात्। न तदन्ते तत एवोपलम्भात् सको ज्ञानम् // ] स व्यञ्जनावग्रहोऽज्ञानं ज्ञानं न भवति, तस्योपकरणेन्द्रिय-शब्दादिपरिणतद्रव्यसंबन्धस्य कालस्तत्कालस्तस्मिन् ज्ञानस्यानुपलम्भात् स्वसंवेदनेनाऽसंवेद्यमानत्वात्; बधिरादीनामिव। यथा हि बधिरादीनामुपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिविषयद्रव्यैः सह संबन्धकाले न किमपि ज्ञानमनुभूयते, अननुभूयमानत्वाच्च तन्नास्ति, तथेहाऽपीति भावः॥ अत्रोत्तरमाह- 'न तदंते इत्यादि / नासौ जड़रूपतया ज्ञानरूपेणाऽननुभूयमानत्वादज्ञानम्, किं तर्हि?, तओ-सकोऽसौ व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानमेव।कुतः?, तदन्ते- तस्य व्यञ्जनावग्रहस्यान्ते, तत एव ज्ञानात्मकस्याऽर्थावग्रहोपलम्भस्य भावात्। तथा हि- यस्य (व्यञ्जनावग्रह में ज्ञान-मात्रा की सिद्धि) . यहां सम्भावित आक्षेप और उसके (उपयुक्त) परिहार को भी (प्रस्तुत गाथा के माध्यम से) बताने के उद्देश्य से (भाष्यकार) कह रहे हैं // 195 // अण्णाणं सो बहिराइणं व तक्कालमणुवलंभाओ। न तदंते तत्तो च्चिय उवलंभाओ तओ नाणं // [(गाथा-अर्थ :) (शंका-) जिस प्रकार बहिरे लोगों को (इन्द्रिय और विषय का सम्बन्ध होने पर भी) शब्द-ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार व्यञ्जनावग्रह के समय शब्दादि वस्तु की उपलब्धि नहीं होती, अतः वह अज्ञान रूप (ही) हुआ? (उत्तर-) चूंकि व्यअनावग्रह के बाद ही, उसी के आधार पर, (अर्थावग्रह रूप) वस्तु की उपलब्धि होती है, इसलिए वह (व्यञ्जनावग्रह, ज्ञानजनक होने के कारण) ज्ञान (ही) है।] - व्याख्याः - (शंका की जा रही है कि) व्यञ्जनावग्रह (तो) अज्ञान है, ज्ञान रूप (ही) नहीं है। जिस समय उपकरणेन्द्रिय और शब्दादिपरिणत द्रव्य (यानी शब्द, रूप, रस, गंध आदि) का (परस्पर) सम्बन्ध होता है, उस समय ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती, क्योंकि स्वसंवेदन से उसका संवेदन नहीं होता, बधिर लोगों की तरह (ही यह दशा होती है)। तात्पर्य यह है कि जैसे बधिर (बहरे) लोगों को, उनकी उपकरणेन्द्रियों का शब्दादि विषय द्रव्यों के साथ सम्बन्ध होने पर भी कुछ भी ज्ञान की अनुभूति नहीं होती, अनुभूति नहीं तो ज्ञान का सद्भाव भी नहीं, उसी तरह (व्यञ्जनावग्रह के होने पर . भी किसी भी ज्ञान की अनुभूति न होने से ज्ञान का अभाव) यहां भी है। पूर्वोक्त शंका का उत्तर दे रहे हैं- (न, तदन्ते) इत्यादि / जड़ रूप होने एवं ज्ञान रूप से अनुभव में न आने से यह (व्यञ्जनावग्रह) 'अज्ञान' (है, ऐसा) नहीं है। (प्रश्न-) तो वह क्या है? (उत्तर-) वह (व्यञ्जनावग्रह) 'ज्ञान' ही है। (प्रश्न-) कैसे? (उत्तर-) (तदन्ते-) उस व्यञ्जनावग्रह के अंत में, उसी से Mi ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 287 24