________________ 'आहेत्यादि' पुनरप्याह पर:- ननु यथैव मया व्याख्यायते- व्यतिरेकमुखेन निश्चयोऽपायः, अन्वयमुखेन तु धारणा, इत्येवमेव चतुर्धा चतुर्विधा मतिर्भवति युक्तितो घटते। अन्यथा तु व्याख्यायमाने- अन्वय-व्यतिरेकयोर्द्वयोरप्यपायत्वेऽभ्युपगम्यमाने - इत्यर्थः। किम्?, इत्याह- त्रिधा-अवग्रहेहाऽपायभेदतस्त्रिभेदा मतिर्भवति, न पुनश्चतुर्धा, धारणाया अघटमानकत्वादिति भावः।। इति गाथार्थः॥१८७॥ कथं पुनर्धारणाऽभावः?, इत्याह काऽणुवओगम्मि धिई पुणोवओगे य सा जओऽवाओ?। तो नत्थि धिई, भण्णइ इदं तदेवेति जा बुद्धी॥१८८॥ नणु साऽवायब्भहिया जओ य सा वासणाविसेसाओ। जा याऽवायाणन्तरमविच्चुई सा धिई नाम // 189 // (आह-) (अब अन्यथा व्याख्यान करने वाले विरोधियों की ओर से पुनः शंका प्रस्तुत की जा रही है-) जैसे जिस प्रकार से हमने व्याख्यान किया है कि व्यतिरेक (के निश्चय) के आधार पर किया जाने वाला निर्णय 'अपाय' है, और अन्वय के आधार पर किया जाने वाला निर्णय 'धारणा' है, इस प्रकार (हमारे व्याख्यान में) मति ज्ञान के चार ही प्रकार सयुक्तिक घटित होते हैं (अतः मति के पांच भेद होने का दोष कैसे दे रहे हैं? दूसरी बात यह कि हमारे व्याख्यान से भिन्न, आपके द्वारा भिन्न व्याख्यान करने पर, अर्थात् अन्वय व व्यतिरेक- इन दोनों (के आधार पर किये गये निर्णय) को 'अपाय' रूप में स्वीकार करने पर भी मति ज्ञान के अवग्रह, ईहा, अपाय -ये तीन ही भेद होते हैं, न कि चार, क्योंकि 'धारणा' तो इनमें घटित होती नहीं (अतः आपके व्याख्यान में मति ज्ञान के एक भेद कम होने का दोष स्पष्ट है) -यह भाव है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥ 187 // (अविच्युत वासना-स्मृति रूप धारणा) ..'धारणा' का अभाव कैसे है- इस आरोप को (विरोधी पूर्वपक्षी, जो अन्यथा व्याख्यान का - पक्षधर है, वह) स्पष्ट कर रहा है // 188 // काऽणुवओगम्मि धिई पुणोवओगे य सा जओऽवाओ? | तो नत्थि धिई, भण्णइ इदं तदेवेति जा बुद्धी॥ // 189 // नणु साऽवायब्भहिया जओ य सा वासणाविसेसाओ। जा याऽवायाणन्तरमविच्चुई सा धिई नाम || -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 275