________________ वस्त्ववबोधरहितत्वादिति। यत् पुनस्तदेव चेतो वक्ष्यमाणस्वरूपं तदीहेति संबन्धः। कथंभूतं सत्? इत्याह- 'भूयाभूयेत्यादि'। भूतः क्वचिद् विवक्षितप्रदेशे स्थाण्वादिरर्थः, अभूतस्तत्राऽविद्यमानः पुरुषादिः, तावेव पदार्थान्तरेभ्यो विशिष्यमाणत्वाद् विशेषौ, तयोरादानत्यागाभिमुखं- भूतार्थविशेषोपादानस्याऽभिमुखम्, अभूतार्थत्यागस्याऽभिमुखमिति यथासंख्येन संबन्धः। यतः कथंभूतम्? इत्याह- सदर्थहेतूपपत्तिव्यापारतत्परं हेतुद्वारेणेदं विशेषणम्- सदर्थहेतूपपत्तिव्यापारतत्परत्वाद् भूताऽभूतविशेषादानत्यागाभिमुखमिति भावः, तत्र हेतुः साध्यार्थगमकं युक्तिविशेषरूपं साधनम्, उपपत्तिः संभवघटनम्- विवक्षितार्थस्य संभवव्यवस्थापनम्। ततश्च हेतुश्चोपपत्तिश्च हेतूपपत्ती सदर्थस्य विवक्षितप्रदेशेऽरण्यादौ विद्यमानस्य स्थाण्वादेरर्थस्य हेतूपपत्ती सदर्थहेतूपपत्ती तद्विषयो व्यापारो घटनं चेष्टनं सदर्थहेतूपपत्तिव्यापारस्ततस्तत्परं तनिष्ठमिति समासः। अत एवाऽमोघमर्थबलायातत्वेनाऽविफलममिथ्यास्वरूपम्, तदेवंभूतं चेतः 'ईहा' इति संबन्धः कृत एव। इदमुक्तं भवति- केनचिदरण्यदेशं गतेन सवितुरस्तमयसमये ईषदवकाशमासादयति तमिस्र दूरवर्ती स्थाणुरुपलब्धः, ततोऽस्य विमर्शः समुत्पन:- किमयं स्थाणुः, पुरुषो वा? इति। अयं च संशयत्वादज्ञानम्। ततोऽनेन तस्मिन् स्थाणौ दृष्ट्वा वल्ल्यारोहणम्, क्योंकि वस्तु का कोई बोध वहां नहीं होता। किन्तु आगे कहे जाने वाले स्वरूप वाला जो चित्त है, वह 'ईहा' है (यह संशय व ईहा में अन्तर है)। उस (ईहात्मक) चित्त का क्या स्वरूप है? उत्तर दिया('भूताभूतविशेषादान' इत्यादि)। भूत यानी किसी विवक्षित प्रदेश में स्थाणु (वृक्ष) आदि पदार्थ, अभूत यानी वहां अविद्यमान पुरुषादि, ये (वृक्ष व पुरुष) दोनों ही अन्य पदार्थों की अपेक्षा विशिष्यमाण (भिन्न, इतर-व्यावृत्त) होने से विशेष हैं, इन दोनों के आदान व त्याग की ओर अभिमुख, अर्थात् भूतार्थ पदार्थ के आदान तथा अभूतार्थ पदार्थ के त्याग की ओर (इस प्रकार क्रमशः) प्रवृत्त जो चित्त है (वह ईहा है)। (प्रश्न-) क्या कारण है कि वह ऐसा (ईहा रूप) है? उत्तर दिया- उसके ऐसा होने में हेतु यह है कि वह सद्भूत पदार्थ का ज्ञान कराने वाले हेतु व संगति (औचित्य विचार) की क्रिया में तत्पर होता है। तात्पर्य यह है कि सद्भूत पदार्थ के आदान एवं असद्भूत पदार्थ के त्याग की ओर अभिमुख इसलिए है क्योंकि वह सद्भूत पदार्थ (के अस्तित्व) से सम्बन्धित (समर्थक) 'हेतु' और उसकी संगति बैंठाने की क्रिया में तत्पर है। यहां 'हेतु' से तात्पर्य है- साध्य (अभीष्ट) पदार्थ का बोधक युक्तिविशेष रूप साधन / उपपत्ति (संगति) का अर्थ है- उसके अस्तित्व की संगति बैठाना। इस प्रकार, विवक्षित प्रदेश अरण्य (जंगल) आदि में विद्यमान स्थाण (वक्ष) आदि पदार्थ से सम्बन्धित जो हेतु व उपपत्ति हैं, उस विषय की प्रवृत्ति को क्रियान्वित करना या तद्रूप में परिणत होना, यह हुआ 'तदर्थ हेतु-उपपत्ति-व्यापार', उसमें तत्पर या उक्त व्यापार में निरत, यह समासगत अर्थ हुआ। इसी (उक्त व्यापार में रत होने) के कारण, जो (चित्त) 'अमोघ' है। यहां अमोघ पद अपने शब्दसामर्थ्य से विशेष अर्थ को बता रहा है, वह अर्थ है- जो विफल न हो, मिथ्या स्वरूप न हो, उस प्रकार का जो चित्त है, इस कथन के आगे यह वाक्य जोड़ना चाहिए- वह (ही) ईहा है। - तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति जंगल में गया। सूर्यास्त के समय जब थोड़ा अन्धकार भी छाने लगा, ऐसे समय उसे दूरस्थित वृक्ष (जैसा पदार्थ) दिखाई दिया। उस व्यक्ति को यह विचार उत्पन्न ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 269 20