________________ अथवा 'दव्वसुयमसाहारणकारणउत्ति'। द्रव्य श्रुतं पुस्तकादिन्यस्ताऽऽ चारादिग्रन्थाक्षररूपम् , गुरुजनोदीरितदेशनाशब्दस्वरूपं च परप्रबोधकं भवेत्। कुतः? इत्याह- असाधारणस्य मोक्षं प्रत्यनन्यसाधारणकारणस्य क्षायिकज्ञानदर्शन-चारित्रलक्षणस्य वस्तुकलापस्य कारणत्वाद् हेतुत्वात्, ततश्च तद्द्वारेण श्रुतज्ञानमपि परप्रबोधकं घटते, करादिचेष्टास्तु यद्यपि मतिज्ञानस्य कारणम्, तथापि यथोक्तो विशिष्टः परप्रबोधस्तासु प्रायो न संभवति, अतो विशिष्टपरप्रबोधाभावाद् न ताः परप्रबोधिकाः, तथा च सति न तद्द्वारेणाऽपि मतिज्ञानं परप्रबोधकम् / इति सूत्रस्य सूचकत्वात् सोपस्कारः पूर्वार्धस्याऽर्थोऽवसेयः॥ अथोत्तरार्धस्य व्याख्या प्रस्तूयते- 'रूढं ति वेत्यादि' वेत्यथवा, भवतु मतिज्ञानस्य कारणं करादिचेष्टा, तथापि सा 'द्रव्यमतिः' इत्येवमागमे क्वचिदपि न रूढा, द्रव्यश्रुतं पुनः पूर्वोक्तस्वरूपं श्रुतं' इत्येवं सर्वत्र रूढम्। ततश्च यद्यपि करादिचेष्टा मतिज्ञानस्य कारणं, परप्रबोधिका च, तथापि द्रव्यमतित्वेनाऽरूढत्वात् कारणे कार्योपचारतो मतिरूपतया न व्यवह्रियते। अतो मतिज्ञानात् तस्याः पृथग्भूतत्वाद न तदद्वारेण तस्य परप्रबोधकत्वम्, द्रव्यश्रुतं तु कारणे कार्योपचारतः श्रुतज्ञानत्वेन प्ररूप्यते, इति तद्द्वारेणाऽस्य परप्रबोधकत्वमुपपद्यत एव। इति युक्तो मूकेतरभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः। ततश्च तक्कारणाइं दोण्ह वि बोहेति तओ न भेओ सिं' इत्येतदपास्तं भवति // इति गाथार्थः // 174 / / अथवा (द्रव्यश्रुतम् असाधारणकारणतः- इसकी अन्य व्याख्या इस प्रकार भी समझनी चाहिए), पुस्तक आदि में निहित आचारांग आदि ग्रन्थात्मक अक्षर 'द्रव्यश्रुत' है, वह गुरुजनों द्वारा उच्चारित उपदेशात्मक शब्द के रूप में पर-प्रबोधक हो सकता है। कैसे? बता रहे हैं- असाधारण रूप मोक्ष के प्रति अनन्य असाधारण कारण जो क्षायिक ज्ञान-चारित्र रूप कारण-सामग्री है, उस का वह कारण या हेतु है। इसलिए इस रीति से श्रुतज्ञान भी परप्रबोधक हो जाता है। किन्तु करादि चेष्टाएं, यद्यपि वे मतिज्ञान की कारण हैं, तथापि पूर्वोक्त विशिष्ट परप्रबोधकता उनमें प्रायः संभव नहीं होतीं, अतः विशिष्ट पर-प्रबोधक न होने से वे पर-प्रबोधक नहीं हैं। इस स्थिति में. इस रीति से (अर्थात परम्परया भी) मतिज्ञान परप्रबोधक नहीं होता। इस प्रकार 'सूत्र' मात्र संकेतकारक होता है, अतः (इस गाथा के) पूर्वार्ध का अर्थ उपस्कार सहित (अर्थात् वाक्याध्याहार करते हुए, अतिरिक्त पदादि को जोड़ते हुए) समझना चाहिए। .. अब (गाथा के) उत्तरार्ध की व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है- (रूढ़मिति वा)। वा=अथवा। भले ही करादिचेष्टाएं मतिज्ञान की कारण हों, तथापि वह आगम में कहीं भी 'द्रव्यमति' इस रूप में रूढ़ (प्रयुक्त) नहीं दृष्टिगोचर होतीं, किन्तु पूर्वोक्तस्वरूप वाला द्रव्यश्रुत तो 'श्रुत' इस रूप में सर्वत्र रूढ़ है। इसलिए यद्यपि करादि-चेष्टा मतिज्ञान की कारण है और परप्रबोधिका भी है, फिर भी 'द्रव्यमति' रूप में रूढ़ न होने के कारण, कारण में कार्य का उपचार करते हुए वह मति रूप से व्यवहृत नहीं होती। अतः मतिज्ञान से उस (करादि चेष्टा) के पृथक् होने से, वह परम्परया (मतिज्ञान की) परप्रबोधक नहीं होती, किन्तु द्रव्यश्रुत तो कारण में कार्य का उपचार करते हुए 'श्रुतज्ञान' रूप से निरूपित होता है, इसलिए परम्परया (उस श्रुतज्ञान का) परप्रबोधक होना (द्रव्यश्रुत में) संगत हो ही जाता है। इस प्रकार, मति व श्रुत में मूक व अमूक होने सम्बन्धी भेद युक्तिसंगत होता है। अतः -- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 255