________________ दव्वसुयमसाहारणकारणओ परविबोहयं होज्जा। रूढं ति व दव्वसुयं सुयं ति रूढा न दव्वमई // 174 // [संस्कृतच्छाया:-द्रव्यश्रुतमसाधारणकारणतः परविबोधकं भवेत् / रूढमिति वा द्रव्यश्रुतं श्रुतमिति रूढा न द्रव्यमतिः॥] द्रव्यश्रुतं पुस्तकन्यस्ताक्षरशब्दरूपं श्रुतज्ञानस्यैव कारणम्, न तु मतेः, इति श्रुतज्ञानं प्रत्यसाधारणकारणत्वाद् द्रव्यश्रुतं परप्रबोधकं भवेत्, न तु करादिचेष्टाः, तासां मतिश्रुतोभयकारणत्वेन साधारणकारणत्वादिति भावः। इदमुक्तं भवति- पुस्तकादिन्यस्ताक्षररूपं, शब्दात्मकं च द्रव्यश्रुतम्, श्रुतज्ञानस्य मतिपूर्वकत्वाद् यद्यप्यानन्तर्येणाऽवग्रहेहादीन्. जनयति, तथाऽप्यक्षररूपत्वाद् मुख्यतया श्रुतज्ञानस्यैव किलाऽसाधारणं कारणमुच्यते, कारणत्वेनोपचारतः श्रुतज्ञानेऽन्तर्भवति, परप्रबोधकत्वेन च तत् सर्वस्याऽपि विदितमिति। एवं कारणस्य परप्रबोधकत्वाच्छूतज्ञानं परप्रबोधकं घटते, करादिचेष्टास्तु मतिज्ञानस्याऽसाधारणकारणं न भवन्ति, श्रुतज्ञानहेतुत्वादपि करवकासंयोगादिकायां हि करचेष्टायां दृष्टायां न केवलं तद्विषया अवग्रहादय उत्पद्यन्ते, किन्तु 'भोक्तुमिच्छत्ययम्' इत्यादिश्रुतानुसारिविकल्पात्मकं श्रुतज्ञानमप्युपजायत इति। अतोऽसाधारणकारणत्वाभावात् करादिचेष्टाः परमार्थतो मतिज्ञानस्य कारणमेव न संभवन्ति, ततश्च न तत्रान्तर्भवन्ति, तथा च सति न मतिज्ञानं परप्रबोधकम्। (174) दव्वसुयमसाहारणकारणओ परविबोहयं होज्जा। रूढं ति व दव्वसुयं सुयं ति रूढा न दव्वमई॥ [(गाथा-अर्थ :) (श्रुतज्ञान के प्रति) असाधारण कारण होने से द्रव्यश्रुतं तो पर-प्रबोधक होता : है, किन्तु (करादिचेष्टा रूप) द्रव्यमति (उस तरह मति रूप में) रूढ़ नहीं है।] व्याख्याः- पुस्तकों में लिखित अक्षर-शब्दरूप द्रव्यश्रुत श्रुतज्ञान का ही कारण है, मति का नहीं, इसलिए श्रुतज्ञान के प्रति असाधारण कारण होने से द्रव्यश्रुत पर-प्रबोधक होता है, किन्तु . करादिचेष्टाएं (परप्रबोधक) नहीं, क्योंकि वे मति व श्रुत दोनों की साधारण कारण हैं, यह भाव है। तात्पर्य यह है कि पुस्तक आदि में निहित अक्षर रूप जो शब्दात्मक द्रव्यश्रुत है वह, यद्यपि श्रुतज्ञान के मतिपूर्वक होने से, अनन्तर (अर्थात् प्रथमतया) अवग्रह, ईहा आदि को उत्पन्न करता है, तथापि अक्षर रूप होने से प्रमुखतया श्रुतज्ञान का ही असाधारण कारण कहा जाता है, और कारण में कार्य का उपचार करने से वह (शब्दात्मक द्रव्यश्रुत) श्रुतज्ञान में अन्तर्गत माना जाता है और परप्रबोधक रूप से भी वह सभी को ज्ञात है। इस प्रकार, कारण के पर-प्रबोधक होने से श्रुतज्ञान की परप्रबोधकता घटित हो जाती है। किन्तु करादि-चेष्टाएं मतिज्ञान की असाधारण कारण नहीं हैं, क्योंकि वे श्रुतज्ञान की भी हेतु हैं, इसलिए हाथ व मुख के संयोग आदि की करादिचेष्टाओं को देखकर, तद्विषयक अवग्रह आदि ही उत्पन्न नहीं होते, किन्तु 'यह भोजन करना चाहता है' इत्यादि श्रुतानुसारी विकल्पात्मक श्रुतज्ञान भी होता है। अतः करादि-चेष्टाएं मति-ज्ञान की असाधारण कारण न होने से परमार्थतः उनमें मतिज्ञान की कारणता ही सम्भव नहीं है, इसलिए वे मतिज्ञान अन्तर्भूत नहीं होतीं, और इस स्थिति में मतिज्ञान पर-प्रबोधक नहीं होता। Ma 254 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---