________________ तत्त्व-भेद-पर्यावैध व्याख्या, तत्र तत्त्वं लक्षणम्, तच्च प्रागेवोक्तम्। अथ तद्भेदनिरूपणार्थमाह इन्दिय-मणोनिमित्तं तं सुयनिस्सियमहेयरं च पुणो।। तत्थेक्के क्कं चउभेयमुग्गहोप्पत्तियाईयं // 177 // [संस्कृतच्छाया:- इन्द्रिय-मनोनिमित्तं तच्छुतनिश्रितमथेतरच्च पुनः। तत्रैकैकं चतुर्भेदमवग्रहौत्पत्तिक्यादिकम्॥] इन्द्रिय-मनोनिमित्तं यत् प्रागुक्ताभिनिबोधिकज्ञानम्, तद् द्विभेदं भवति-श्रुतनिश्रितम्, इतरच्चाऽश्रुतनिश्रितम्। अथशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः। तत्र श्रुतं संकेतकालभावी परोपदेशः, श्रुतग्रन्थश्च, पूर्वं तेन परिकर्मितमतेर्व्यवहारकाले तदनपेक्षमेव यदुत्पद्यते तत् श्रुतनिश्रितम्, यत्तु श्रुतापरिकर्मितमतेः सहजमुपजायते तदश्रुतनिश्रितम्। तत्र तयोः श्रुतनिशिताऽतनिनितयोर्मध्ये एकचतुर्भदम्। कथम्? इत्याह- यथासंख्यमवग्रहादिकम्, औत्पत्तिक्यादिकं व- अवग्रोहापायधारणाभेदात् श्रुतनिश्रितं चतुर्विधम्, औत्पत्तिकी-वैनयिकी-कर्मजा-पारिणामिकीलक्षणबुद्धिभेदात्त्वश्रुतनिश्रितं (आभिनिबोधिक ज्ञान के भेद) तत्त्व (स्वरूप), भेद पर्याय -इस क्रम से व्याख्या की जाती है। इनमें तत्त्व का अर्थ हैलक्षण, जिसका कथन पहले (अब तक) कर दिया गया है। अतः तत्सम्बन्धी भेद का निरूपण कर : रहे हैं (177) इन्दिय-मणोनिमित्तं तं सुयनिस्सियमहेयरंच पुणो।। तत्थेक्केक्कं चउभेयमुग्गहोप्पत्तियाईयं // [(गाथा-अर्थ :) इन्द्रिय व मन के निमित्त से होने वाला आभिनिबोधिक ज्ञान (1) श्रुतनिश्रित व (2) अश्रुतनिश्रित रूप से (दो प्रकार का) है। इन (दोनों) में प्रत्येक के अवग्रहादि, और औत्पत्तिकी आदि क्रमशः चार-चार भेद हैं।] व्याख्याः- इन्द्रिय व मन के निमित्त से होने वाला आभिनिबोधिक ज्ञान है, जिसका पहले निरूपण हो चुका है। वह दो प्रकार का है- (पहला) (1) श्रुतनिश्रित, और दूसरा (2) अश्रुतनिश्रित। 'अथ' शब्द वाक्यगत अलंकार हेतु (प्रयुक्त) है। यहां 'श्रुत' से तात्पर्य है- संकेत काल में होने वाला परोपदेश और श्रुत ग्रंथ। 'श्रुत' से परिकर्मित (संस्कारित) मति जिसकी पहले हो चुकी है, ऐसे व्यक्ति को व्यवहार काल में, उस (श्रुत) की अपेक्षा किये बिना ही जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह 'श्रुतनिश्रित' है। 'श्रुत' से परिकर्मित (संस्कारित) मति जिसकी पहले नहीं हुई है, ऐसे व्यक्ति को सहज ही जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह तो 'अश्रुतनिश्रित' है। ---- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 259