________________ अथाऽस्मिन्नेव मतेर्द्रव्यश्रुतत्वपक्षे 'इयरत्थ वि होज्ज सुर्य' इत्यादौ मूलगाथाया उत्तरार्धे योऽर्थः संपद्यते, तमाचार्यः प्रदर्शयन्नाह इयरम्मि वि मइनाणे होज्ज तयं तस्समं जइ भणेज्जा। न य य तरइ तत्तियं सो जमणेगगुणं तयं तत्तो॥१३७॥ [संस्कृतच्छाया:- इतरस्मिन्नपि मतिज्ञाने भवेत् तत् तत्समं यदि भणेत्। न च तरति (शक्नोति) तावत्स यदेनेकगुणं तत् ततः॥] भाषमाणस्य मतिर्द्रव्यश्रुतमित्युक्तम्, अतोऽभाषमाणावस्थाभावि मतिज्ञानमितरत्रशब्दवाच्यं भवति। ततश्चेतरत्राप्यभाषमाणावस्थाभाविनि मतिज्ञाने भवेत् तद् द्रव्यश्रुतं यदि तत्समं मतिज्ञानोपलब्धिसमं भणेत, यावद् मतिज्ञानेनोपलभते तावत् सर्वं वदेदित्यर्थः, एतच्च नास्ति / कुतः? इत्याह- न च नैव 'तरति' शक्नोति स यावद् मतिज्ञानेनोपलभते तावद् वक्तुम्। कुतः? इत्याहयद् यस्मात् ततो वक्तुं शक्यात् तत् सर्वमपि मतिज्ञानोपलब्धमनेकगुणमनन्तगुणम् // इति गाथार्थः // 137 // कर जो आन्तरिक अक्षर-लाभ होता है, उसे वक्ता श्रुतोपयोग में रहकर ही बोलता है। हां, जो अश्रुतानुसारी, अर्थात् अपनी मति से ही पर्यालोचित पदार्थों के ईहा, अपाय रूप ज्ञान (क्रम) में जो अक्षरलाभ स्फुरित होता है, वह शब्दरूप द्रव्यश्रुत का कारण होने से (उस वक्ता का उक्त मतिज्ञान) द्रव्यश्रुत होता ही है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 136 // (अभिलाप्य व अनभिलाप्य का विचार) उसी पूर्वोक्त गाथा के उत्तरार्ध में 'अन्यत्र भी श्रुत हो सकता है' इस कथन का जो तात्पर्यार्थ ढोता है, उसे आचार्य कह रहे हैं (137) इयरम्मि वि मइनाणे होज्ज तयं तस्समंजइ भणेज्जा। न य य तरइ तत्तियं सो जमणेगगुणं तयं तत्तो // [(गाथा-अर्थः) अन्य मतिज्ञान में भी द्रव्यश्रुत सम्भव है, बशर्ते तत्प्रमाणसमान (जितना ज्ञात हुआ है, उतना सब) बोला जाए। किन्तु ऐसा करना शक्य नहीं, क्योंकि (बोले जाने योग्य पदार्थों के)उस (ज्ञान) की अपेक्षा (नहीं बोले जा सके पदार्थों का) वह ज्ञान अनेकगुना (अनन्तगुना) होता है।] ___ व्याख्याः - बोलने वाले (व्यक्ति) का मति ज्ञान द्रव्यश्रुत है- ऐसा कहा गया / नहीं बोलने की स्थिति में रहने वाला मतिज्ञान इतर (अन्य) मतिज्ञान शब्द से यहां कहा गया है। (अतः अर्थ हुआ कि) अन्य मतिज्ञान यानी न बोलने की स्थिति वाला मतिज्ञान द्रव्यश्रुत के रूप में अभिव्यक्त हो सकता है बशर्ते मतिज्ञान-उपलब्धिसम को बोला जा सके, अर्थात् जितना मतिज्ञान से जाना, उस सब को बोले। किन्तु ऐसा नहीं होता / क्यों नहीं होता? उत्तर दिया- (न च तरति)- जितना मतिज्ञान से प्राप्त करता है, उस सब को (वक्ता) नहीं बोल सकता। ऐसा क्यों? उत्तर दिया- चूंकि जितना बोला जा सकता है, उस की अपेक्षा (अवशिष्ट) मतिज्ञान-उपलब्ध ज्ञान अनेकगुना होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 13 // Mar 212 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------