________________ [संस्कृतच्छाया:-मतिकालेऽपि यदि श्रुतं ततो युगपद् मतिश्रुतोपयोगौ ते। अथ नैवमेकतरं प्रपद्यमानस्य युज्यते न श्रुतम्॥] स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेकलक्षणे मतिकालेऽपि यदि श्रुतव्यापार इष्यते, ततो युगपदेव मति-श्रुतोपयोगौ ते तव प्रसज्येते, न चैतद् युक्तम्, समकालं ज्ञानद्वयोपयोगस्य निषिद्धत्वात्। अथैतद्दोषभयाद् नैवमुपयोगद्वयं युगपदभ्युपगभ्यते, तइँकतरं प्रतिपद्यमानस्यस्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेककाले मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं वेच्छतो भवत इत्यर्थः, किम्? इत्याह- 'जुज्जए न सुयं ति'। श्रुतमिह प्रतिपत्तुं न युज्यते, किन्तु मतिज्ञानमेव। इदमुक्तं भवति- 'सावकाशाऽनवकाशयोरनवकाशो विधिर्बलवान्' इति न्यायादन्यत्राऽनवकाशं मतिज्ञानमेवैकं तवैकतरं प्रतिपद्यमानस्येह प्रतिपत्तुं युज्यते, न तु श्रुतम्, तस्याऽन्यत्र श्रुतानुसारिण्याचारादिज्ञानविशेषे सावकाशत्वात्। एवं च सति स्थाणुपुरुषादिपर्यायविवेको मतेरेव, न तु श्रुतात्, स चाऽक्षराभिलापसमनुगत एव, इति नैकान्तेन मतिज्ञानमनक्षरमिति भावः॥इति गाथार्थः // 166 // [(गाथा-अर्थः) मति के काल में श्रुत यदि मानते हो तो मति-श्रुत- इन दोनों उपयोगों को युगपद्भावी (समकालीन) मानना पड़ेगा (जो सिद्धान्तविरुद्ध है)। और जो इन दोनों में से एक का ही सद्भाव मानोगे तो फिर 'श्रुत' (का अस्तित्व) युक्तियुक्त नहीं ठहरेगा (अर्थात् उसका अभाव हो जाएगा)] व्याख्या:- स्थाणु व पुरुष आदि पर्यायों के विवेक रूप मतिज्ञान के समय भी यदि श्रुतव्यापार मान रहे हो तो तुम्हारे मत में, मति व श्रुत- इन दोनों उपयोगों की युगपद्भाविता (समानकालता) प्रसक्त होगी (माननी पड़ेगी), किन्तु ऐसा युक्तियुक्त नहीं होगा, क्योंकि (आगम में) दो ज्ञानों के एक समय होने का निषेध किया गया है। अब, इस दोष के भय से, (उससे बचने हेतु) दोनों उपयोगों का एक साथ होना नहीं मानते हो तो फिर दोनों में से किसी एक (के सद्भाव) को मानना पड़ेगाअर्थात् स्थाणु व पुरुष आदि के पर्याय सम्बन्धी विवेक के समय या तो मतिज्ञान मानना पड़ेगा या श्रुतज्ञान मानना पड़ेगा। तब क्या (दोष) होगा? इसे ही बता रहे हैं- (युज्यते न श्रुतम्)। तो श्रुत का सद्भाव मानना युक्तियुक्त नहीं होगा, किन्तु मतिज्ञान ही मानना ठीक रहेगा। तात्पर्य यह है- 'सावकाश व अनवकाश में जो विधि अनवकाश होती है, वह बलवान् होती है'- यह एक प्रसिद्ध न्याय (नीतिनिर्देशक नियम) है [यहां सावकाश का अर्थ है जो अपनी सार्थकता या उपयोगिता सिद्ध कर चुका है, इसके विपरीत अनवकाश या निरवकाश होता है।] जब इन दोनों में किसी एक को (ही) मानने का प्रसंग हो तो इस नियम के अनुसार, मतिज्ञान चूंकि अन्यत्र कहीं सावकाश नहीं है, अतः, वही (अर्थात् उसका ही अस्तित्व) युक्तियुक्त है, न कि श्रुतज्ञान, क्योंकि (श्रुतज्ञान तो) श्रुतानुसारी आचारशास्त्रादि सम्बन्धी विशेष ज्ञान में सावकाश है। फलस्वरूप, स्थाणुपुरुष आदि के पर्याय का विवेक 'मति' का ही कार्य है, न कि 'श्रुत' का। वह मति वहां अक्षरअभिलाप से युक्त ही है, अतः 'एकान्त रूप से मतिज्ञान अनक्षर ही है'- यह कथन ठीक नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 166 // Ma 244 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- -