________________ किश, अक्षरानुगतत्वमात्रमुपलभ्य स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेको भवता श्रृतनिश्रित उक्तः, एवं चातिप्रसङ्गः प्राप्नोतीति दर्शयति जइ सुयनिस्सियमक्खरमणुसरओ तेण मइचउक्कं पि। सुयनिस्सियमावन्नं तुह तं पि जमक्खरप्पभवं॥१६७॥ [संस्कृतच्छाया:- यदि श्रुतनिश्रितमक्षरमनुसरतस्तेन मतिचतुष्कमपि। श्रुतनिश्रितमापन्नं तव तदपि यदक्षरप्रभवम् // ] यदि स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेकविधानेनाऽक्षरमनुसरतः प्रमातुर्ज्ञानं श्रुतनिश्रितं भवता प्रोच्यते, तेन तात्पत्तिक्यादिमतिचतुष्कमपि तव श्रुतनिश्रितमापन्नम्, यस्मात् तदप्यक्षरप्रभवं वर्णाऽऽलिङ्गितमित्यर्थः- तदपि हि नेहादिविरहेण जायते, ईहादयश्च न वर्णाभिलापमन्तरेण संभवन्ति। तस्माद् मतिचतुष्कमपि त्वदभिप्रायेण श्रुतनिश्रितमायातम्, न चैतदस्ति, आगमेऽश्रुतनिश्रितत्वेन तस्याऽभिधानात्। तस्माद् देवानांप्रियेणाऽद्यापि श्रुतनिश्रितस्य स्वरूपमेव नाऽवगम्यते, तत् किं वयं ब्रूमः? पति गावार्थः॥ 167 // . (श्रुतनिश्रित व अश्रुतनिश्रित मति) ___और दूसरी बात, स्थाणु व पुरुष आदि पर्याय के विवेक को, मात्र इस आधार पर कि वह अक्षरानुसारी है, आपने श्रुत-निश्रित कहा, किन्तु इस प्रकार तो अतिव्याप्ति दोष आएगा- इसी तथ्य को आगे की गाथा में भाष्यकार कह रहे हैं (167) जइ सुयनिस्सियमक्खरमणुसरओ तेण मइचउक्कं पि। सुयनिस्सियमावन्नं तुह तं पि जमक्खरप्पभवं // [(गाथा-अर्थः) यदि आप श्रुतानुसारी होने के आधार पर ज्ञान को श्रुतनिश्रित मानते हैं, तब तो (औत्पत्तिकी आदि चार प्रकार की बुद्धि) मति-चतुष्क भी आपके मत में श्रुतनिश्रित माना जाएगा, क्योंकि वह भी अक्षरप्रसूत है।] व्याख्याः- यदि स्थाणु व पुरुष आदि पर्याय से सम्बन्धित विवेक के द्वारा प्रमाता का ज्ञान अक्षरानुसारी होने से श्रुतनिश्रित है- ऐसा आप मानते हैं, तब तो आपके मत में औत्पत्तिकी आदि चारों मतियां श्रुतनिश्रित होने लगेंगी, क्योंकि वह (मतिचतुष्क) भी ईहा आदि के अभाव में नहीं होता और ईहा आदि भी वर्णोच्चारण के बिना संभव नहीं होते, अतः वह (मतिचतुष्क) ज्ञान भी अक्षरप्रसूत अर्थात् वर्णसंयुक्त है। इस प्रकार मति-चतुष्क तुम्हारे मत में श्रुतनिश्रित हो जाता है, किन्तु ऐसा (कथमपि मान्य) नहीं, क्योंकि आगम में उस (मति-चतुष्क का) अश्रुतनिश्रित रूप में कथन किया गया है। अतः आप (देवानांप्रिय यानी) निरे मूर्ख ही हैं जो श्रुतनिश्रित के स्वरूप को ही नहीं समझ पाए हैं, इस (आपकी मूर्खता) पर हम आखिर क्या कहें? (न बोलना ही अच्छा है।) || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 167 // ---- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- 245