________________ [संस्कृतच्छाया:-अथ श्रुततोऽपि विवेकं कुर्वतो न तत् श्रुतं श्रुतं नास्ति। यो यः श्रुतव्यापारः अन्योऽपि सको मतिर्यस्मात् // ] - अथ श्रुतादपि स्थाणु-पुरुषादिविवेकं कुर्वतः प्रमातुर्न तत् श्रुतम्, किन्तु मत्यभावभीत्या मतित्वेनाऽभ्युपगयम्ते, हन्त ! तकत्र संधिसतोऽन्यतः प्रच्यवते, यत एवं सति श्रुतं क्वचिदपि नास्ति- श्रुताभावः प्राप्नोतीत्यर्थः। कुतः? इत्याह- यो पसरणकरणादिप्रतिपादनलक्षणोऽन्योऽपि श्रुतस्याऽऽचारादेर्व्यापारः सकोऽसौ यस्माद् मतिज्ञानमेव, अक्षरात्मकत्वात्, स्थाणुपुरुषादिपर्यायविवेकवत् // इति गाथार्थः॥१६५॥ अथ स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेको मतिश्च, श्रुतं च भविष्यति, अतो नैकस्याऽप्यभावप्रसङ्ग इत्याह मइकाले वि जइ सुयं तो जुगवं मइ-सुओवओगा ते। अह नेवं एगयरं पवज्जओ जुज्जए न सुयं // 166 // . .. [(गाथा-अर्थः) और यदि 'श्रुत' से विवेक करने वाले प्रमाता के 'श्रुत' को 'श्रुत' नहीं (मानकर, मति) मानते हों, तब इस रीति से जो-जो अन्य भी श्रुतव्यापार हैं, वे ‘मति' रूप हो जाएंगे। __व्याख्याः- अब (पूर्वपक्षी ऐसा यदि कहे कि) श्रुत से स्थाणु-पुरुष आदि का विवेक तो होता है, किन्तु ज्ञाता का वह श्रुत नहीं है, अपितु, ‘मति' रूप ही है। (आचार्य का कथन है-) ऐसा जो तुम मान रहे हो, वह इसलिए कि न मानने पर मति का अभाव हो जाएगा। अरे दया के पात्र! तब एक जगह का समाधान करना चाहते हो तो दूसरी जगह (दोष आ जाने के संकट से ग्रस्त हो जाते हो और सिद्धान्त से) च्युत (पतित, संकटग्रस्त) हो जाते हो / क्योंकि (उस विवेक को भी मति मानने पर) श्रुत तो कहीं भी नहीं रहेगा, अर्थात् श्रुत का अभाव हो जाएगा। कैसे? उत्तर दिया- तब फिर आचार सम्बन्धी चरण-करण आदि का प्रतिपादन जो श्रृत का व्यापार माना जाता है. वह भी उसी रीति से अक्षरात्मक होने से, स्थाणुपुरुषादि पर्याय-विवेक की तरह ही, मतिज्ञान ही होने लगेगा (इस तरह, एक बिगड़े काम को आपने ठीक किया तो दूसरा काम बिगाड़ लिया) || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 165 // स्थाणु व पुरुष आदि के पर्याय का विवेक ‘मति' भी है और 'श्रुत' भी, अतः उन दोनों में से किसी के भी अभाव का प्रसंग नहीं आएगा- इस (पूर्वपक्षी की ओर से संभावित समाधान) को दृष्टि में रख कर कह रहे है (166) मइकाले वि जइ सुयं तो जुगवं मइ-सुओवओगा ते। अह नेवं एगयरं पवज्जओ जुज्जए न सुयं // ----- विशेषावश्यक भाष्य --------243 FREE