________________ अत्राह- ननु 'भरनित्थरणसमत्था तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला। उभओलोगफलवई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी॥ [भरनिस्तरणसमर्था त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतप्रमाणा। उभयलोकफलवती विनयसमुत्था भवति बुद्धिः॥] ' इत्यादिवचनात् तत्रापि मतिचतुष्के वैनयिकी मतिः श्रुतनिश्रिता समस्ति / सत्यम्, किन्तु सकृच्छ्रुतनिश्रितत्वे सत्यपि बाहुल्यमङ्गीकृत्याऽश्रुतनिश्रितं तदुच्यत इत्यदोषः। तस्माद् यदुक्तम्- 'जं मइनाणमणक्खरमक्खरमियरं च सुयनाणं' (यत् मतिज्ञानमनक्षरमितरं च श्रुतज्ञानम्) इति। तदयुक्तम्, मतेरनक्षरत्वे स्थाणु-पुरुषादिपर्यायविवेकाभावप्रसङ्गात्, श्रुतनिश्रितत्वस्य चाऽन्यथा समर्थितत्वादिति स्थितम्॥ इति गाथार्थः / / 169 // यद्यनक्षरा मतिर्न भवति, तर्हि 'लक्खणभेया हेऊफलभावओ' इत्यादिगाथायां प्रतिज्ञातोऽक्षराऽनक्षरभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः कथं गमनीयः? इत्याह उभयं भावक्खरओ अणक्खरं होज्ज वंजणक्खरओ। मइनाणं सुत्तं पुण उभयं पि अणक्खरक्खरओ॥१७०॥ यहां (शंकाकार ने) कहा- “कठिनातिकठिन कार्य को पूरा करने में समर्थ, त्रिवर्ग (धर्मअर्थ-काम) के (अर्जनादि के निरूपक) सूत्र व अर्थ के सार को ग्रहण करने वाली एवं उभयलोक सम्बन्धी फल को सम्पन्न कराने वाली विनय-उत्पन्न अर्थात् वैनयिकी बुद्धि होती है"- इस आगमवचन के द्वारा उक्त मति-चतुष्टय में वैनयिकी बुद्धि को श्रुतनिश्रित कहा गया है (किन्तु आप तो उसे अश्रुतनिश्रित बता रहे हैं) यह कैसे? (आचार्य का उत्तर-) आपका कहना सही है। किन्तु उसके एक बार श्रुतनिश्रित होने पर भी बहुलता की दृष्टि से (उसकी अश्रुतनिश्रितता को ध्यान में रखकर-) उसे अश्रुतनिश्रित कहा गया है- इसलिए हमारा कथन निर्दोष है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि आपने (गाथा-162 के रूप में) जो यह कहा है कि “मतिज्ञान अनक्षर है, और श्रुतज्ञान तो अक्षरयुक्त है और अनक्षर भी है" यह युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि मति को अनक्षर मानने पर उससे स्थाणु व पुरुष आदि पर्याय सम्बन्धी विवेक नहीं हो पाएगा, और अन्य रीति से उसके श्रुतनिश्रितपने का समर्थन दृष्टिगोचर होता है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 169 // (द्रव्याक्षर की अपेक्षा से मति व श्रुत में साक्षर व अनार का भेद) ___ यदि मति अनक्षर नहीं होती, तो पहले जो यह कहा कि "दोनों में लक्षण-भेद है, और दोनों में एक हेतु (कारण) है और दूसरा फल (कार्य)-इन दोनों दृष्टियों से मति व श्रुत में अन्तर है" -इत्यादि (97वीं) गाथा में कहकर अक्षर व अनक्षर के रूप में मति व श्रुत में भेद जो बताया, उसकी संगति कैसे हो पाएगी? -इस आशंका को मन में रखकर अब आचार्य (प्रत्युत्तर रूप में) कह रहे हैं (170) उभयं भावक्खरओ अणक्खरं होज्ज वंजणक्खरओ। मइनाणं सुत्तं पुण उभयं पि अणक्खरक्खरओ // Ma 248 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------