________________ पुस्तकादिन्यस्ताक्षररूपम्, शब्दरूपं च, तदेव साक्षरं भावश्रुतमपि श्रुतानुसार्यकारादिवर्णविज्ञानात्मकत्त्वात् साक्षरम्, पुस्तकादिन्यस्ताकाराद्यक्षररहितत्वाच्छब्दाभावाच्च तदेवाऽनक्षरम्, पुस्तकादिन्यस्ताक्षरस्य शब्दस्य च द्रव्यश्रुतान्त:पातित्वेन भावश्रुतेऽसत्त्वात्। तदेवं मते वश्रुतस्य च साक्षराऽनक्षरकृतो नास्ति विशेषः, प्रत्येकं द्वयोरप्यक्षरानक्षररूपत्वेनोक्तत्वात्, केवलं सामान्येन 'श्रुतं' इत्युक्ते तन्मध्ये द्रव्यश्रुतं लभ्यत इति कृत्वा तत्र द्रव्यश्रुतमाश्रित्य द्रव्याक्षरमस्ति, मतौ तु तन्नास्ति, तस्या द्रव्यमतित्वेनाऽरूढत्वादिति। एवमनयोर्द्रव्याक्षरापेक्षया साक्षराऽनक्षरत्वकृतो भेदः॥ इति गाथार्थः // 170 // तदेवमक्षरेतरभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदमभिधाय मूकेतरभेदात् तमभिधित्सुराह स-परप्पच्चायणओ भेओ मूएयराण वाऽभिहिओ। जं मूयं मइनाणं स-परप्पच्चायगं सुत्तं // 171 // [संस्कृतच्छाया:- स्व-परप्रत्यायनतो भेदो मूकेतरयोरिवाऽभिहितः। यद् मूकं मतिज्ञानं स्व-परप्रत्यायकं श्रुतम्॥] . भी श्रुतानुसारी अकारादि वर्ण-विज्ञानरूप होने से साक्षर है, वही पुस्तक आदि में लिखे गए अकार आदि अक्षरों से रहित होने से या शब्दरूप न होने से अनक्षर है, क्योंकि पुस्तक आदि में लिखे गए अक्षर या शब्द का द्रव्यश्रुत के अन्तर्गत परिगणन होता है, भावश्रुत में नहीं। इस प्रकार, मति और भावश्रुत- दोनों में साक्षरता व अनक्षरता की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं रह जाता, क्योंकि दोनों में से प्रत्येक के साक्षर व अनक्षर रूप से भेद कहे जा चुके हैं। 'श्रुत' इतना मात्र कहें तो भी, चूंकि उसमें द्रव्यश्रुत अन्तर्भूत है, इस दृष्टि से यानी 'द्रव्यश्रुत' की अपेक्षा से भी, श्रुत में तो द्रव्याक्षर का सद्भाव है, मति में तो वह द्रव्याक्षर होता ही नहीं, क्योंकि द्रव्यमति के रूप में उसका प्रयोग रूढ़ नहीं है। इस तरह, (मति व श्रुत-) इन दोनों का द्रव्याक्षर की दृष्टि से साक्षरता व अनक्षरता की दृष्टि से भेद है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 170 // (मूक व मुखर की तरह मति व श्रुत में भेद) इस प्रकार, साक्षर व अनक्षर रूप में मति व श्रुत में भेद प्रतिपादित कर, मूक व अमूक-इन दो रूपों में भी उनकी भिन्नता का निरूपण कर रहे हैं (171) स-परप्पच्चायणओ भेओ मूएयराण वाऽभिहिओ। जं मूयं मइनाणं स-परप्पच्चायगं सुत्तं // ___ [(गाथा-अर्थः) मूक (गूंगा) व अमूक (मुखर) की तरह इन (मति व श्रुत) दोनों के 'स्वप्रत्यायकमात्र' (मात्र अपनी प्रतीति करने वाला) तथा 'स्वपरप्रत्यायक' (दूसरे को भी प्रतीति कराने वाला) -इस प्रकार भी भेद कहा गया है, क्योंकि मतिज्ञान (मात्र स्वप्रत्यायक होने से) मूक है, जब कि सूत्र (श्रुतज्ञान) स्व-पर (उभय)- प्रत्यायक (होने से अमूक यानी मुखर) है।] Ma 250 ----- -- विशेषावश्यक भाष्य