________________ जे अक्खराणुसारेण मईविसेसा तयं सुयं सव्वं / जे उण सुयनिरवेक्खा सुद्धं चिय तं मइन्नाणं॥१४४॥ [संस्कृतच्छाया:- येऽक्षरानुसारेण मतिविशेषास्तत् श्रुतं सर्वम्। ये पुनः श्रुतनिरपेक्षाः शुद्धमेव तत् मतिज्ञानम्॥] येऽक्षरानुसारेण श्रुतग्रन्थमनुसृत्य जायन्ते मतिविशेषास्तत् सर्वं श्रुतमेव, इत्यसकृदुक्तम्। ये तु यथोक्तश्रुतनिरपेक्षाः स्वयमेवोत्प्रेक्षितवस्तु तत्त्वा मतिविशेषाः समुत्पद्यन्ते तच्छुद्धं मतिज्ञानमेव, इत्येतदप्यनेकधा प्रागप्यभिहितम् / तस्माच्चतुर्दशपूर्वगताक्षरानुसारेण जायमानाः प्रस्तुतमतिविशेषाः सर्वे श्रुतमेव // इति गाथार्थः॥ 144 // तदेवं द्रव्यश्रुतादिश्रुतस्वरूपप्रतिपादनप्रकारेण बुद्धिढेि अत्थे जे भासइ' इत्यादिमूलगाथां व्याख्याय केई बुद्धिद्दिढे मइसहिए भासओ' इत्यादिना दर्शितमपि विशेषदूषणाभिधित्सया पुनरपि मतान्तरमुपदर्शयन्नाह केइ अभासिजन्ता सुयमणुसरओ वि जे मइविसेसा। मन्नंति ते मइच्चिय भावसुयाभावओ, तन्नो // 145 // (144) जे अक्खराणुसारेण मईविसेसा तयं सुयं सव्वं / जे उण सुयनिरवेक्खा सुद्धं चिय तं मइन्नाणं // [(गाथा-अर्थः) जो अक्षरानुसारी मतिविशेष होते हैं, वे सभी 'श्रुत' हैं। किन्तु जो श्रुतनिरपेक्ष है, वह तो शुद्ध मतिज्ञान है।] व्याख्याः- जो अक्षरानुसारी होकर, श्रुतग्रन्थ का अनुसरण करते हुए मतिविशेष उत्पन्न होते हैं, वे सब ‘श्रुत' ही हैं- यह बारबार कहा गया है। किन्तु जो पूर्वोक्त श्रुत की अपेक्षा न रखते हुए, वस्तु-तत्त्व का निरीक्षण कर मतिविशेष उत्पन्न होते हैं, वह शुद्ध मतिज्ञान ही है- यह भी अनेक बार पहले कहा जा चुका है। इसलिए, चतुदर्शपूर्वगत-अक्षरों का अनुसरण करते हुए उत्पन्न जो मतिविशेष हैं, वे सब 'श्रुत' ही हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||144 // . इस प्रकार, द्रव्यश्रुत आदि के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए पूर्वोक्त (128वीं) मूल गाथा का व्याख्यान किया, उसके बाद, पूर्वोक्त (132वीं) गाथा द्वारा मतान्तर-सम्मत व्याख्यान का तथा उसमें दोष का निरूपण किया गया, तथापि विशेष दोष बताने की इच्छा से उस मतान्तर को पुनः प्रस्तुत कर रहे हैं (145) केइ अभासिज्जन्ता सुयमणुसरओ विजे मइविसेसा। मन्नंति ते मइच्चिय भावसुयाभावओ, तन्नो // Ma 220 --- -------- विशेषावश्यक भाष्य