________________ प्रागुक्तन्यायेनाऽभिलाप्याऽनभिलाप्याः पदार्था मतिज्ञानोपलब्धाः, एवंभूतोपलब्ध्या च समं भणितुं न शक्नोत्येव, अनभिलाप्यानां सर्वथैव वक्तुमशक्यत्वादिति भावः // अत्र परः प्राह-'तोहोउ इत्यादि / ततस्तर्हि भवतु मतिज्ञानमुभयरूपं श्रुत-मतिरूपम्।कुत:?, इत्याह- उभयस्वभावमिति कृत्वा, अभिलाप्याऽनभिलाप्यवस्तुविषयत्वेन द्विस्वभावत्वादित्यर्थः। इदमुक्तं भवति- यदभिलाप्यपदार्थानुपलभते भाषते च, तत् श्रुतज्ञानमस्तु, अनभिलाप्यपदार्थांस्तु भाषणाऽयोग्यान् यदवगच्छति, तद् मतिज्ञानं भवति // इति गाथार्थः // 152 // अत्रोत्तरमाह जं भासइ तं पि जओ न सुयादेसेण किन्तु समईए। न सुओवलद्धितुल्लं ति वा जओ नोवलद्धिसमं // 153 // [संस्कृतच्छाया:- यद् भाषते तदपि यतो न श्रुतादेशेन किन्तु स्वमत्या। न श्रुतोपलब्धितुल्यमिति वा यतो नोपलब्धिसमम्॥] व्याख्या:- पूर्वोक्त रीति से मतिज्ञान अभिलाप्य और अनभिलाप्य-दोनों प्रकार के पदार्थों को उपलब्ध करता (जानता) है, और उक्त उपलब्धि के समान बोलना शक्य नहीं, क्योंकि अनभिलाप्य पदार्थ तो होते ही हैं सर्वथा अवाच्य अर्थात् उन्हें बोला ही नहीं जा सकता। यहां शंकाकार कहता है (ततो भवतु)- तो फिर मतिज्ञान को उभयरूप यानी मतिरूप भी और श्रतरूप भी (दोनों प्रकार का) क्यों नहीं मान लेते? किस प्रकार? उत्तर-उसे द्विस्वभावी मान कर। अर्थात् अभिलाप्य वस्तु को विषय करने वाला तथा अनभिलाप्य वस्तु को विषय करने वालाऐसा मान कर। प्रश्नकर्ता का कहना यह है- जो अभिलाप्य पदार्थ हैं, उन्हें उपलब्ध कर (तो बोलना संभव है ही, अतः उन्हें) बोलता है, उसे तो श्रुतज्ञान मान लिया जाय, और जो भाषण के अयोग्य अनभिलाप्य पदार्थ हैं, उनका ज्ञान मतिज्ञान मान लिया जाय (तो क्या आपत्ति है?) || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥१५२ // (पूर्व गाथा में प्रश्नकर्ता द्वारा प्रस्तुत की गई मान्यता. का- मतिज्ञान की उभयरूपता कानिराकरण करने के उद्देश्य से) अब उत्तर दे रहे हैं (153) जं भासइ तं पि जओ न सुयादेसेण किन्तु समईए। न सुओवलद्धितुल्लं ति वा जओ नोवलद्धिसमं // [(गाथा-अर्थः) चूंकि वह जो (कुछ भी) बोल रहा है, वह श्रुतानुसरण करके नहीं बोलता है अपितु स्वमति से ही बोलता है, अतः श्रुतोपलब्धितुल्य या उपलब्धिसम नहीं बोलता (अतः मतिज्ञान में श्रुतरूपता संभव नहीं)।] Mar 230 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------