________________ इदमुक्तं भवति- अभिनिबुध्यत इत्याभिनिबोधिकम्, श्रूयत इति श्रुतम्, इत्यादिकं मति-श्रुतयोर्यत् स्वकीयं स्वकीयं लक्षणम्, आवारकं च कर्म, तयोर्भेदात् पूर्वाभिहितस्वरूपाद् मतिश्रुतयोर्निर्विशेषभावो न युज्यते। यदि हि तयोर्निर्विशेषता-एकत्वं स्यात्, तदा लक्षणभेदः, आवरणभेदश्च पूर्वोक्तस्वरूपो न स्यादिति भावः॥ इति गाथार्थः // 155 // अथ द्रव्य-भावश्रुतयोरनेन दृष्टान्तेन भेदः प्रतिपाद्यते, सोऽपि न युक्त इति दर्शयन्नाह कप्पेज्जेज्ज व सो भाव-दव्वसुत्तेसु तेसु वि न जुत्तो। मइ-सुयभेयावसरे जम्हा किं सुयविसेसेणं? // 156 // [संस्कृतच्छायाः- कल्प्यते वा स भाव-द्रव्यश्रुतयोस्तयोरपि न युक्तः। मतिश्रुतभेदावसरे यस्मात् किं श्रुतविशेषेण // ] (उत्तर) (इसलिए कि तब दूसरा दोष आ जाएगा, वह है-) (संकरतः) तब मति व श्रुत में संकर यानी सांकर्य व मिश्रण रूप दोष आ जाएगा। (फलस्वरूप) (निर्विशेषभावात्-) जो मतिज्ञान है, वही भावश्रुत है- ऐसा मानने से कोई एक ही तत्त्व रह जाएगा, दोनों की स्थिति नहीं रहेगी- यह तात्पर्य है। (शंकाकार) दोनों निर्विशेष हो जाएं, अर्थात् दोनों एक हो जाएं तो क्या हानि है? (उत्तर-) यह भी मानना युक्तियुक्त नहीं है। (प्रश्न-) क्यों? उत्तर है (-स्वलक्षणावरणभेदात्)- (दोनों ज्ञानों का पृथक्पृथक् लक्षण- निर्धारक पृथक्-पृथक् आवरण है, इसलिए दोनों का एक हो जाना आगमविरुद्ध होगा) स्वलक्षण-आवरण सम्बन्धी भेद कैसा है? इसके समाधानार्थ (विशेषण रूप में) कहा(पूर्वोक्तलक्षणात्) / अर्थात् पूर्वोक्त गाथा (सं.135) में जिनका पृथक्-पृथक् स्वरूप कहा गया है, उसके कारण (दोनों का एक होना युक्तियुक्त नहीं)। ___ तात्पर्य यह है कि जो अभिनिबोध में आए, वह आभिनिबोधिक ज्ञान है और जो सुना जाय * वह श्रुत है- इत्यादि रूप में दोनों में से प्रत्येक ज्ञान का अपना-अपना लक्षण है, इसी तरह दोनों का पृथक्-पृथक् आवरक कर्म भी है, इस प्रकार पूर्व में कहे गए 'भेद' वाले मति व श्रुत में निर्विशेषता यानी अन्तर मिट जाना (कथमपि) युक्तियुक्त नहीं है। यदि दोनों में अन्तर नहीं रहेगा तो उनका जो लक्षण-भेद व आवरण-भेद कहा गया है, वह नहीं रहेगा (निरस्त हो जाएगा) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ॥१५५॥ अब, उक्त दृष्टान्त के आधार पर द्रव्यश्रुत व भावश्रुत के परस्पर भेद का जो प्रतिपादन किया जाए, तो वह भी युक्तिसंगत नहीं होगा- इसे बता रहे हैं (156) कप्पेज्जेज्ज व सो भाव-दव्वसुत्तेसु तेसु वि न जुत्तो / मइ-सुयभेयावसरे जम्हा किं सुयविसेसेणं? // [(गाथा-अर्थः) भावश्रुत व द्रव्यश्रुत में यदि वह भेद प्रतिपादित किया जाय तो वह भी युक्तिसंगत नहीं होगा। क्योंकि मति व श्रुत के परस्पर-भेद के प्रसंग में श्रुत-संबंधी भेद का क्या प्रयोजन है? (अर्थात् निरर्थक है।)] VO 234 -- ----- विशेषावश्यक भाष्य -----