________________ तदेवं वल्क-शुम्बोदाहरणादप्यभिहितो मति-श्रुतयोर्भेदः, सांप्रतं त्वक्षराऽनक्षरभेदात् तमभिधित्सुः पराभिप्राय तावदुपन्यस्यत्राह अन्ने अणक्खरऽक्खरविसेसओ मइ-सुयाई भिंदंति। जं मइनाणमणक्खरमक्खरमियरं च सुयनाणं // 162 // [संस्कृतच्छाया:- अन्ये अनक्षर-अक्षरविशेषतो मतिश्रुते भिन्दन्ति / यत् मतिज्ञानमनक्षरमक्षरमितरच्च श्रुतज्ञानम्॥] अन्ये केचनापि सूरयोऽनक्षराऽक्षरवद्विशेषतो मति-श्रुते भिन्दन्ति, यद् यस्मात् किल मतिज्ञानमनक्षरम्, श्रुतज्ञानं त्वक्षरवद् भवति, इतरच्चाऽनक्षरवदुच्छ्वसितादीत्यर्थः॥ इति गाथार्थः॥१६२॥ अत्राचार्यो दूषणमाह जइ मइरणक्खरच्चिय भवेज नेहादओ निरभिलप्पे। थाणु-पुरिसाइपजायविवेगो किह णु होज्जाहि?॥१६३॥ (मति अनक्षर भी, साक्षर भी) इस प्रकार, वल्क व शुम्ब के उदाहरण के आधार पर मति च श्रुत का भेद बताया गया, अब अक्षर व अनक्षर के भेद के आधार पर उक्त भेद का कथन करना चाहते हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में किसी अन्य व्याख्याता विद्वानों के अभिप्राय को प्रस्तुत करने हेतु भाष्यकार अग्रिम गाथा कह रहे हैं (162) अन्ने अणक्खरऽक्खरविसेसओ मइ-सुयाइं भिंदंति। जं मइनाणमणक्खरमक्खरमियरं च सुयनाणं // [(गाथा-अर्थः) अन्य (कुछ) विद्वान् अनक्षर व अक्षर (युक्त)- इन दो भेदों के आधार पर मति व श्रुत का भेद करते हैं, क्योंकि मतिज्ञान अनक्षर है और दूसरा श्रुतज्ञान अक्षरयुक्त और (साथ ही) अनक्षर (भी) है।] ___ व्याख्याः - अन्य कुछ विद्वान् अनक्षर व अक्षरयुक्त -इस रूप में मति व श्रुत में भेद करते हैं क्योंकि मतिज्ञान अनक्षर होता है, जबकि श्रुतज्ञान अक्षरयुक्त होता है और (साथ ही कभी) उच्छ्वासआदि के रूप में अनक्षरतुल्य भी होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 162 // पूर्वोक्त मान्यता में आचार्य दोष बता रहे हैं (163) जइ मइरणक्खरच्चिय भवेज नेहादओ निरभिलप्पे। थाणु-पुरिसाइपज्जायविवेगो किह णु होज्जाहि?॥ Mn 240 ----- -- विशेषावश्यक भाष्य -------