________________ 'इयरत्थ वि होज सुयं' इति मूलगाथोत्तरार्धे इतरशब्दस्य किं वाच्यम्?, इत्याह- इतरदिति मतिज्ञानं तत्राऽभिसंबध्यते, इत्याचार्येणोक्ते परः प्राह- 'तओ वि जड होइ सहपरिणामो तो तम्मि वि किं न सयंति'। तत इति सप्तम्यन्तात तस्प्रत्ययः, ततश्च 'उभयहा मइन्नाणं' इति वचनाद् यदि तस्मिन्नपि मतिज्ञाने शब्दपरिणामो भवति, ततस्तस्मिन्नपि किं न श्रुतं-तदपि भावश्रुतरूपतां किं न प्रतिपद्यते? इत्यर्थः, शब्दपरिणामस्य श्रुतत्वेनोक्तत्वादिति भावः। अत्राऽऽचार्य उत्तरमाह- 'भासइ जं नोवलद्धिसमं ति'। यद् यस्मात् कारणादुपलब्धिसमं मतिज्ञानी न भाषते, ततो न मतिज्ञानस्य श्रुतरूपता // इति गाथार्थः॥ 151 // कथं पुनरुपलब्धिसममसौ न भणति? इत्याह अभिलप्पाऽणभिलप्पा उवलद्धा तस्समं च नो भणइ। तो होउ उभयरूवं उभयसहावं ति काऊण // 152 // [संस्कृतच्छाया:-अभिलाप्यानभिलाप्या उपलब्धास्तत्समं च न भणति / ततो भवतूभयरूपमुभयस्वभावमिति कृत्वा॥] व्याख्याः - मूल गाथा (128)में आए 'इतरत्र' के 'इतर' शब्द का क्या अर्थ है? उत्तर है- 'इतर' का अर्थ है- अन्य, मतिज्ञान / आचार्य द्वारा ऐसा कहने पर शंकाकार पूछता है- उस (मतिज्ञान) में भी यदि शब्द-परिणमन होता है तो भी उसमें श्रुतपना क्यों नहीं है? 'ततः' इस पद में सप्तम्यन्त अर्थ में तस् प्रत्यय हुआ है, अतः अर्थ हुआ- उसमें। (गाथा-150 में) मतिज्ञान को उभयस्वभावी (शब्दपरिणामी, शब्दपरिणमनरहित) बताया गया है, अतः प्रश्नकर्ता का आशय यह है . कि उस मतिज्ञान में भी यदि शब्दपरिणमन होता है, तब उसमें भी श्रुतरूपता क्यों नहीं, अर्थात् वह भी भावश्रुतरूप (में परिणत) क्यों नहीं हो पाता? क्योंकि शब्दपरिणमन को श्रुतरूप माना गया है। यहां आचार्य उत्तर दे रहे हैं- (भाषते यत्) / चूंकि मतिज्ञानी उपलब्धिसम को नहीं बोल पाता है, इसलिए मतिज्ञान की श्रुतरूपता नहीं बन पाती // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 151 // .. वह (मतिज्ञानी) उपलब्धिसम भाषण क्यों नहीं कर पाता? इसके उत्तर में (दो गाथाएं) कह (152) अभिलप्पाडणभिलप्पा उवलद्धा तस्समं च नो भणइ। __ तो होउ उभयरूवं उभयसहावं ति काऊण // [(गाथा-अर्थः) अभिलाप्य व अनभिलाप्य पदार्थ मतिज्ञान द्वारा उपलब्ध होते हैं, अतः (मतिज्ञानी) उक्त उपलब्धिसम भाषण नहीं कर पाता। (प्रश्न-) यदि ऐसा है तो उसे उभयस्वभावी स्वीकार कर उभयरूप (मतिरूप और श्रुतज्ञानरूप क्यों नहीं) मान लिया जाय?] ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 229