________________ यदपि किञ्चिदभिलाप्यवस्तूपलब्धं मतिज्ञानी भाषते तदपि यतो न श्रुतादेशेन, किन्तु स्वमत्या, अतो न तत् श्रुतमिति। इदमुक्तं भवति- परोपदेशः, श्रुतग्रन्थश्च श्रुतमिहोच्यते, तदादेशेन तु तदनुसारेण विकल्प्य यदा भाषते, तदा श्रुतोपयुक्तस्य भाषणात् श्रुतमुपपद्यत एव, यत्र तु स्वमत्यैव पर्यालोच्य भाषते न तु श्रुतानुसारेण, तत्र श्रुतोपयुक्तत्वाभावाद् मतिज्ञानमेव। तदेवं 'भासइ जं नोवलद्धिसमं' इत्यस्य गाथावयवस्य 'अभिलप्पाणभिलप्पा उवलद्धा' इत्यादिना व्याख्यानं कुर्वताऽऽचार्येण मतिज्ञानी मतिज्ञानोपलब्ध्या समं न भाषते, अतस्तत्रोपलब्धिसमं भाषणं न भवति, इत्यतो न मतिज्ञाने श्रुतरूपतेत्युक्तम्, श्रुतज्ञानी त्वभिलाप्यानुपलभते, तांश्च भाषते, अतस्तत्रैवोपलब्धिसमत्वस्य सद्भावात् श्रुतरूपतेति भावः॥ सांप्रतं तु मतिज्ञानी श्रुतोपलब्ध्या तुल्यं समं न भाषत इत्येवमुपलब्धिसमत्वाभावमुपदर्शयन्नाह- 'न सुओवलद्धीत्यादि'। वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतकः, ततश्च न श्रुतोपलब्ध्या तुल्यं मतिज्ञानी भाषत इति वा, यतो यस्मात् कारणाद् नोपलब्धिसमं मतिज्ञानिनो भाषणम्, तस्माद् न तत्र श्रुतरूपता। इदमुक्तं भवति- श्रुतोपलब्धौ परोपदेशार्हद्वचनलक्षणश्रुतानुसारेणोपलब्धानर्थान् भाषते, मत्युपलब्धौ तु तदुपलब्धानेव, इत्यतो न मतिज्ञानिनो भाषणं श्रुतोपलब्धिसमम् / ततश्च न तत्र श्रुतसंभवः॥ इति गाथार्थः // 153 // व्याख्याः - मतिज्ञानी जो कुछ भी उपलब्ध वस्तु को कहता है, वह भी चूंकि श्रुतानुसरण कर नहीं कहता, अपितु स्वमति से ही कहता है, अतः वह 'श्रुत' नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि परोपदेश व श्रुतात्मक ग्रन्थ -ये ही यहां 'श्रुत' रूप में मान्य हैं। उक्त 'श्रुत' का अनुसरण कर जब कोई बोलता है, तभी श्रुतोपयोग-सहित भाषण होने से 'श्रुत' ज्ञान का सद्भाव संगत होता है। किन्तु जब कोई अपनी ‘मति' से ही पर्यालोचित कर बोलता है, श्रुतानुसरण करके नहीं, तब श्रुतोपयोगरहित होने से वह मतिज्ञान ही है। इस प्रकार, 'उपलब्धि समान नहीं बोलता' (गाथा-151 में) आए इस कथन को (गाथा-152 में आए) 'अभिलाप्य-अनभिलाप्य उपलब्ध पदार्थों को' इस कथन के साथ जोड़कर व्याख्यान कर रहे आचार्यश्री ने यह बता दिया कि चूंकि मतिज्ञानी मतिज्ञानसम्बन्धी उपलब्धि के समान नहीं बोलता, इसलिए वहां उपलब्धिसम भाषण न हो पाने से मतिज्ञान की श्रुतरूपता नहीं हो पाती। श्रुतज्ञानी तो अभिलाप्य पदार्थों को उपलब्ध करता है, और उन्हें बोलता भी है, अतः वहां उपलब्धिसम भाषण के होने से श्रुतरूपता संभव होती है- यह भाव है। . अब मतिज्ञानी श्रुतोपलब्धि से तुल्य या तत्समान नहीं बोलता, इस प्रकार वहां उपलब्धिसमत्व के अभाव को निदर्शित करते हुए कह रहे हैं- (न श्रुतोपलब्धितुल्यम्)। 'वा' शब्द 'अथवा' अर्थ को, यानी दूसरे प्रकार से कथन करने को सूचित कर रहा है। अतः अर्थ हुआ- अथवा मतिज्ञानी श्रुतोपलब्धिसमान नहीं बोलता है, चूंकि उसका उपलब्धिसम भाषण नहीं होता, इसलिए (उसका ज्ञान) श्रुतरूप नहीं है। तात्पर्य यह है कि श्रुत-उपलब्धि में, परोपदेश या अर्हद्वचन रूप श्रुत का अनुसरण करते हुए उपलब्ध पदार्थों को वक्ता बोलता है, किन्तु मति-उपलब्धि में मति-उपलब्ध पदार्थों को ही बोलता है, इस कारण से मतिज्ञानी का भाषण श्रुतोपलब्धिसम नहीं है, इसलिए वहां 'श्रुत' के होने की संभावना भी नहीं हो सकती। यह गाथा का अर्थ पर्ण हआ॥१५३॥ via ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------231