________________ यदि भाष्यमाणं मुक्त्वा शेषकं सर्वमपि बुद्धिर्मतिज्ञानमित्यर्थः, तर्हि मति-श्रुतज्ञानाभ्यां विदन्तीति मति-श्रुतज्ञानवेदिनः परस्परं स्वस्थाने परस्थाने च कथं षट्स्थानपतिताः स्युः? न कथञ्चिदित्यर्थः, तथाहि- सर्वेणाऽपि जन्मना मतिश्रुतोपलब्धानामर्थानामनन्तभाग एव भाष्यत इति प्रागिहैवोक्तम्। ततश्च मतिज्ञानी श्रुतज्ञानिनः सकाशात् सदैवाऽनन्तगुणाधिकः, श्रुतज्ञानी त्वितरस्माद् नित्यमनन्तगुणहीन एव प्राप्नोति, इति न तावत् परस्थाने षट्स्थानपतितत्वम्। स्वस्थानेऽपि श्रुतज्ञानी अन्यस्मात् श्रुतज्ञानिनः संख्यातेनैव हीनोऽधिको वा स्यात्, न त्वसंख्यातेन, अनन्तेन वा, भाषकचतुर्दशपूर्वविदां संख्येयवर्षायुष्कत्वेनाऽसंख्येयस्याऽनन्तस्य वा भाषणस्यैवाऽसंभवादिति / अस्यैव च विशेषणदूषणस्याऽभिधानार्थं पुनरत्रेदं मतान्तरमुपन्यस्तम्, अन्यथा हि 'केई बुद्धिद्दिढे मइसहिए भासओ सुयं' इत्यादिना सर्वमिदं प्रागभिहितमेव // इति गाथार्थः॥१४६ // तदेवं 'बुद्धिद्दिढे अत्थे' इत्यादिपूर्वगतगाथा श्रुतस्वरूपाभिधायिना प्रकारेण व्याख्याता, मति-श्रुतयोश्च भेदस्य व्याख्येयत्वेन प्रस्तुतत्वात् तदभिधायकत्वेनापि मतान्तरेण व्याख्याता, तच्च व्याख्यानमयुक्तत्वाद् दूषितम्। अथाऽऽत्माभिमतेन निरवद्यमतिश्रुतभेदप्रकारणैतां व्याख्यातुमाह सामन्ना वा बुद्धी मइ-सुयनाणाई तीए जे दिट्ठा। भासइ, संभवमेत्तं गहियं न उ भासणामेत्तं // 147 // व्याख्याः- यदि भाष्यमाण को छोड़कर शेष समस्त ही बुद्धि मतिज्ञान होती तो मति व श्रुत से जानने वाले मतिश्रुतज्ञानवेत्ता परस्पर स्वस्थान व परस्थान की अपेक्षा से षट्स्थानपतित कैसे होते? अर्थात् कथमपि नहीं होते। चूंकि समस्त जन्म व्यतीत कर भी मति-श्रुत से उपलब्ध पदार्थों का अनन्तवां भाग ही कहा जा सकता है- यह हमने पहले बताया ही है। इस स्थिति में श्रुतज्ञानी की अपेक्षा मतिज्ञानी सदैव अनन्तगुण अधिक होता, श्रुतज्ञानी भी अन्य श्रुतज्ञानी से सर्वदा अनन्तगुण हीन ही होता, अतः परस्थान की दृष्टि से 'षट्स्थानपतितता' नहीं होती। स्वस्थान में भी श्रुतज्ञानी अन्य श्रुतज्ञानी से संख्यातगुना ही हीनाधिक होता, न कि असंख्यातगुना या अनन्तगुना हीनाधिक होता क्योंकि वक्ता चतुर्दशपूर्वधारी संख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं, इसलिए वे असंख्यात व अनन्त पदार्थों का भाषण कर ही नहीं सकते। इसी दोष को बताने के लिए यहां इस (पूर्वोक्त अन्यकृत व्याख्यान) को मतान्तर रूप में प्रस्तुत किया है, अन्यथा 'केचिद् बुद्धिदृष्टान्' इत्यादि गाथा (सं. 132) द्वारा बाकी सब तो इसी रूप में कहा गया है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 146 // ___इस प्रकार 'श्रुत' के स्वरूप को बताने की दृष्टि से 'बुद्धिदृष्टान् अर्थान्' इत्यादि गाथा (सं. 128) का व्याख्यान किया गया, उस व्याख्यान को युक्तिसंगत न होने के कारण दोषयुक्त बताया गया। अब (उस गाथा का वास्तविक व्याख्यान क्या है-इसे बता रहे हैं अर्थात्) अपने निजी अभिमत के अनुरूप, निर्दोष रूप से मति-श्रुत के भेद बताने की दृष्टि से, इस गाथा का व्याख्यान कर रहे हैं (147-148) सामन्ना वा बुद्धी मइ-सुयनाणाई तीए जे दिट्ठा / भासइ, संभवमेत्तं गहियं न उ भासणामेत्तं // NAL 222 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----