________________ अथ परः पूर्वापरविरोधमुद्भावयन्नाह जइ सुयमक्खरलाभो न नाम सोओवलद्धिरेव सुर्य।। सोओवलद्धिरेवक्खराइं सुइसंभवाउ ति॥१२५॥ [संस्कृतच्छाया:- यदि श्रुतमक्षरलाभो न नाम श्रोत्रोपलब्धिरेव श्रुतम्। श्रोत्रोपलब्धिरेवाक्षराणि श्रुतिसंभवादिति // ] इयमपि प्राग् मूलगाथावृत्तौ दर्शिताथैव, तथापि विस्मरणशीलानामनुग्रहार्थं किञ्चिद् व्याख्यायते। ननु यद्युक्तन्यायेन शेषेन्द्रियाक्षरलाभोऽपि श्रुतम्, तर्हि 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतम्' इति यदवधारणं कृतं, तदसङ्गतं प्राप्नोति, शेषेन्द्रियाक्षरलाभस्यापि श्रुतत्वात्। अत्रोत्तरमाह- 'सोओवलद्धिरेवेत्यादि'। यद्यसौ शेषेन्द्रियाक्षरलाभोऽपि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिर्न स्यात्, तदा स्यादेवाऽवधारणमसंगतम्, तच्च नास्ति, यतः शेषेन्द्रियद्वाराऽऽयातज्ञानेऽपि प्रतिभासमानान्यक्षराणि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव॥ अब शंकाकार पूर्वापर-विरोध दिखाकर उसका भी समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं (125) जइ सुयमक्खरलाभो न नाम सोओवलद्धिरेव सुयं / / सोओवलद्धिरेवक्खराइं सुइसंभवाउ ति॥ [(गाथा-अर्थः) (प्रश्न-) (श्रोत्रेतर इन्द्रियों से प्राप्त) अक्षर-उपलब्धि भी 'श्रुत' है, तब श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि ही श्रुत है- ऐसा जो अवधारणात्मक कथन जो पहले किया है, वह कैसे संगत होगा?] ___ (उत्तर-) (श्रोत्रेतर इन्द्रियज्ञान में प्रतिभासमान होने वाले) अक्षर भी, श्रोत्र द्वारा श्रवणयोग्य होने के कारण श्रोत्रोपपलब्धि रूप ही हैं।] व्याख्याः- इस गाथा की बात पहले भी कही जा चुकी है, फिर भी विस्मृति के स्वभाव वाले लोगों पर अनुग्रह कर कुछ व्याख्यान किया जा रहा है। (शंका-) उक्त न्याय से यदि शेष इन्द्रियों से प्राप्त अक्षर-लाभ भी श्रुत है तो 'श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि ही श्रुत है' यह जो अवधारणात्मक कथन किया है, वह असंगत हो जाता है, क्योंकि शेष-इन्द्रियों से प्राप्त अक्षर-लाभ को भी 'श्रुत' कहा जा रहा है। - अब (पूर्वोक्त) शंका का उत्तर दिया जा रहा है- (श्रोत्रोपब्धिः एव)। यदि शेष इन्द्रियों से प्राप्त अक्षर-लाभ भी श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि नहीं होता, तभी तो उक्त अवधारणात्मक कथन असंगत होता। किन्तु ऐसी बात नहीं है, क्योंकि शेष इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान में भी प्रतिभासित अक्षर श्रोत्रेन्द्रियउपलब्धि ही है। Mia ---------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ----197