________________ पत्ताइगयं सुयकारणं ति सद्दो व्व तेण दव्वसुयं। भावसुयमक्खराणं लाभो सेसं मइन्नाणं॥१२४॥ [संस्कृतच्छाया:- पत्रादिगतं श्रुतकारणमिति शब्द इव तेन द्रव्यश्रुतम्। भावश्रुतमक्षराणां लाभः शेषं मतिज्ञानम्॥] मूलगाथायां ' श्रोत्रावग्रहादयः, शेषकं च मतिज्ञानम्', इत्युक्ते शेषस्य सर्वस्याऽप्युत्सर्गतो मतित्वे प्राप्ते, अपवाद:- 'मोत्तूणं दव्वसुयं ति' इत्युक्तम्। तत्र किं तद् द्रव्यश्रुतं यदिह वय॑ते?, इत्याह भाष्यकार:- पत्रादिगतं पुस्तक-पत्रादिलिखितम्, तेन कारणेन द्रव्यश्रुतं, येन किं?, इत्याह- श्रुतकारणमिति / किंवत्?, इत्याह- शब्दवदिति / यथा भावश्रुतकारणत्वाच्छब्दो द्रव्यश्रुतम्, तथा पुस्तकपत्रादिन्यस्तमपि तत्कारणत्वाद् द्रव्यश्रुतमित्यर्थः। तद् मुक्त्वा शेषं शेषचक्षुरादीन्द्रियोपलब्धिरूपं मतिज्ञानम्। भावसुयमक्खराणमित्यादि'। न केवलं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतम्, यश्च श्रुतानुसारित्वाद् भावश्रुतं भावश्रुतरूपः शेषेषु चक्षुरादीन्द्रियेष्वक्षराणां लाभः परोपदेशार्हद्वचनानुसारिण्यक्षरोपलब्धिरित्यर्थः, सोऽपि श्रुतम्, इत्येवं मूलगाथायां संबन्धः कार्य इति हृदयम्, स च प्राग् वृत्तौ कृत एव। तस्माच्चाक्षरलाभाच्चक्षुरादीन्द्रियेषु यच्छेषमश्रुतानुसार्यवाहेहाद्युपलब्धिरूपं, तद् मतिज्ञानम्, इत्येवमिहाप्येतत् संबध्यते // इति गाथार्थः॥१२४॥ (124) पत्ताइगयं सुयकारणं ति सद्दो व्व तेण दव्वसुयं / / . भावसुयमक्खराणं लाभो सेसं मइन्नाणं // [(गाथा-अर्थः) शब्द की तरह (भाव) श्रुत का कारण होने से, पत्र, पुस्तक आदि में निहित . (लिखित, मुद्रित आदि) लेखादि द्रव्यश्रुत है। (श्रुतानुसारी जो) अक्षर-लाभ है, वह भावश्रुत है। शेष मतिज्ञान है।] व्याख्याः- (पूर्वोक्त गाथा-117 में) 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि से अतिरिक्त शेष सब मतिज्ञान है'ऐसा कहे जाने से, शेष समस्त ज्ञानों की सामान्यतया मतिज्ञानरूपता प्राप्त हो गई (और कई दोषों की सम्भावना बढ़ी-) इसलिए 'अपवाद' रूप में कहा गया- 'द्रव्यश्रुत को छोड़कर'। तब प्रश्न उठा कि द्रव्यश्रुत क्या है जिसे छोड़ने के लिए कहा जा रहा है? इसके समाधान हेतु भाष्यकार कह रहे हैं(पत्रादिगतम्)। वह द्रव्यश्रुत है। किस कारण से? उत्तर है- (श्रुतकारणम्)। श्रुत-कारण होने से। अर्थात् पुस्तक, पत्र, (कागज) आदि में लिखित सामग्री भावश्रुत की कारण होने से उसी प्रकार द्रव्यश्रुत है जिस प्रकार कोई शब्द (भावश्रुत में कारण होने से) द्रव्यश्रुत माना जाता है। उस द्रव्यश्रुत को छोड़कर, शेष यानी चक्षु आदि इन्द्रियों से होने वाली उपलब्धि 'मतिज्ञान' है। (भावश्रुत-) अर्थात् न केवल श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत है, किन्तु जो शेष चक्षु आदि इन्द्रियों से जो अक्षर-लाभ है अर्थात् परोपदेश या अर्हद्वचन की अनुसारिणी अक्षरोपलब्धि है, वह भी श्रुतानुसारी होने से भावश्रुत रूप है-इसे भी मूल गाथा (117) में जोड़ लेना चाहिए, जिसे पहले हमने वृत्ति में भी निर्दिष्ट कर दिया है। इसलिए, अक्षर-लाभ से अवशिष्ट- चक्षु आदि इन्द्रियों से होने वाला जो अ-श्रुतानुसारी अवग्रहईहादि उपलब्धि रूप- ज्ञान है, वह मतिज्ञान है- इस प्रकार के कथन को यहां भी जोड़ना उचित है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 124 // Ma 196 ---- ---- विशेषावश्यक भाष्य ----