________________ सोइंदिओवलद्धी चेव सुयं न उ तई सुयं चेव।। सोइंदिओवलद्धी वि काइ जम्हा मइन्नाणं॥१२२॥ [संस्कृतच्छाया:- श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्चैव श्रुतं न तु सा श्रुतं चैव। श्रोत्रोन्द्रियोपलब्धिरपि काचिद् यस्मात् मतिज्ञानम्॥] इह श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिशब्दस्य तृतीया-षष्ठीसमासः, बहुव्रीहिश्च,आद्यसमासद्वयेन भावश्रुतम्, बहुव्रीहिणा तु भावश्रुतानुपयुक्तस्य वदतो द्रव्यश्रुतम्, तदुपयुक्तस्य तु ब्रुवत उभयश्रुतं गृहीतमिति प्राग्वृत्तौ दर्शितं सर्वं द्रष्टव्यम्। अवधारणविधिमपि प्रागपदर्शितमाह'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतं' इत्येवमवधारणीयम्।'न उ तई ति' न पुनः सा श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेव' इति / कुतो नैवमवधार्यते?, इत्याह- यस्माच्छ्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि काचिदश्रुतानुसारिणी अवग्रहेहादिमात्ररूपा मतिज्ञानमेव, अतः 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेव' इति नावधार्यत इति भावः / एवं च सति 'न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी' इत्यादि परेण यत् प्रेरितं, तत् परिहतं भवति, श्रोत्रावग्रहादीनामपि बुद्धिरूपतायाः समर्थितत्वात् // इति गाथार्थः॥१२२॥ (122) सोइंदिओवलद्धी चेव सुयं न उ तई सुयं चेव / / . सोइंदिओवलद्धी वि काइ जम्हा मइन्नाणं // [(गाथा-अर्थः) श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि ही श्रुत है, न कि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत ही है- ऐसा कहना चाहिए। क्योंकि कोई-कोई (अ-श्रुतानुसारिणी) श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि भी मतिज्ञान रूप होती है।]. व्याख्याः- यहां श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि शब्द में तृतीया या षष्ठी तत्पुरुष समास, और बहुब्रीहि समास भी है। पहले दो समासों में भावश्रुत अर्थ अभिहित होता है और बहुब्रीहि समास में तो 'भावश्रुत के उपयोग से रहित वक्ता का द्रव्यश्रुत' अर्थ अभिहित होता है, भावश्रुत के उपयोग से रहित वक्ता के दोनों- (भाव व द्रव्य) श्रुत होते हैं- यह सब पहले इस वृत्ति में बताया जा चुका है, उसे (पहले) समझ लें। 'अवधारण' (एवकार यानी 'ही' अर्थ के साथ वाक्यार्थ को समझने) की विधि, जो पहले बताई जा चुकी है, उसी के अनुरूप जो यह कथन है- श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि ही श्रुत है- वही मन में पक्का करना चाहिए। (न तु सा-) 'वह श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत ही है'- इस प्रकार उसे मन में निश्चित नहीं करना चाहिए। उक्त निर्णय क्यों नहीं करना चाहिए? उत्तर कह रहे हैं- (यस्मात्-) चूंकि कोई-कोई श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि भी- जो श्रुतानुसारिणी नहीं होती और मात्र अवग्रह आदि रूप होती है, अतः ‘श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत ही है' यह निर्धारित (निश्चित) नहीं किया जाता- यह तात्पर्य है। इस (विवेचन के परिप्रेक्ष्य में) “श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाले अवग्रहादि ‘मति' नहीं कहला सकेंगें' -इस प्रकार जो आपत्ति शंकाकार द्वारा रखी गई थी, उसका (स्वतः) परिहार हो जाता है, क्योंकि श्रोत्रनिमित्तक अवग्रहादि को मतिज्ञान के रूप में स्वीकारा गया है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 122 // NR 194 -------- विशेषावश्यक भाष्य