________________ भणओ सुणओ व सुयं तं जमिह सुयाणुसारि विण्णाणं।। * दोण्हं पि सुयाईयं जं विन्नाणं तयं बुद्धी // 121 // [संस्कृतच्छाया:- भणतः शृण्वतो वा श्रुतं तद् यदिह श्रुतानुसारि विज्ञानम्। द्वयोरपि श्रुतातीतं यद् विज्ञानं तद् बुद्धिः॥] तस्माद् ‘ब्रुवतः श्रुतं, शृण्वतस्तु मतिः' इत्येतद् न युक्तम्, उक्तदूषणात्, अनागमिकत्वाच्च। किं तर्हि युक्तम्? इति चेत् / उच्यते- भणतः शृण्वतो वा यत् किमपि श्रुतानुसारि परोपदेशार्हद्वचनानुसारि विज्ञानं, तदिह सर्वं श्रुतम्, यत् पुनर्द्वयोरपि वक्तृश्रोत्रोः श्रुतातीतं हृषीक-मनोमात्रनिमित्तमवग्रहादिरूपं विज्ञानं, तत् सर्वं बुद्धिर्मतिज्ञानमित्यर्थः। तदेवं द्वयोरपि वक्तृ-श्रोत्रोः प्रत्येकं मति-श्रुते यथोक्तस्वरूपे अभ्युपगन्तव्ये, न पुनरेकैकस्यैकमिति भावः // इति गाथार्थः॥१२१॥ भवत्वेवम्, किन्तु 'सोओवलद्धी जइ सुयं न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी' इत्यादिना यः परेण पूर्वपक्षो व्यधायि, तस्य तर्हि कः परिहारः? इत्याशक्य भाष्यकार एवेदानीं सोइंदिओवलद्धी होइ सुर्य' इत्यादिमूलगाथां विवृण्वन्नाह (121) भणओ सुणओ व सुयं तंजमिह सुयाणुसारि विण्णाणं।। दोण्हं पि सुयाईयं जं विन्नाणं तयं बुद्धी // [(गाथा-अर्थः) वस्तुतः यहां जो श्रुतानुसारी ज्ञान है, वह श्रोता और वक्ता के लिए श्रुतज्ञान है, और जो श्रुतरहित (अ-श्रुतानुसारी) है, वह (दोनों के लिए) मतिज्ञान है।] व्याख्याः- उक्त कारण से, आपका यह कहना कि 'वक्ता के लिए 'श्रुत' है और श्रोता के लिए 'मति है' युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उसमें पूर्वोक्त दोष तो है ही, वह आगमसमर्थित भी नहीं है। (प्रश्न) तब फिर क्या कहना युक्तियुक्त है? (उत्तर-) कह रहे हैं- बोलने वाला हो या सुनने वाला, उसका जो कुछ भी श्रुतानुसारी, परोपदेश या अर्हद्वचन का अनुसारी 'विज्ञान' है, वह सन् यहां (इस प्रकरण में) श्रुत' है, इसी प्रकार वक्ता व श्रोता- दोनों का जो श्रुत-अतीत, मात्र इन्द्रिय व मन के निमित्त से उत्पन्न होने वाला अवग्रह आदिरूप विज्ञान है, वह सब 'बुद्धि' यानी मतिज्ञान है- यह भाव है। इसलिए वक्ता व श्रोता- दोनों में मति व श्रुत का होना मानना चाहिए, न कि किसी एक (वक्ता) के लिए श्रुत और दूसरे (यानी श्रोता) के लिए 'मति'- ऐसा मानना चाहिए- यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 121 // * चलो मान लिया। किन्तु "श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि यदि श्रुत है तो श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाले अवग्रह आदि भेद मतिज्ञान के नहीं कहलाएंगे" ऐसी जो शंका पूर्व गाथा (सं.118) में उठाई गई थी, उसका परिहार कहां हुआ? इस शंका को दृष्टि में रखते हुए स्वयं भाष्यकार उक्त शंका को प्रस्तुत करने वाली मूलगाथा (सं.118) के अर्थ को स्पष्ट करते हैं (तथा उसका प्रत्युत्तर भी दे रहे हैं) Mia ---------- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 193