________________ अहो! महदाश्चर्य, यतो यदि शेषेन्द्रियाक्षरलाभः, कथं श्रोत्रोपलब्धि:?, सा चेत्, कथं शेषेन्द्रियाक्षरलाभ:?, इत्याशङ्कयाह-' 'सुइसंभवाउ त्ति'। शेषेन्द्रियज्ञानप्रतिभासभाञ्जि अक्षराणि श्रोत्रोपलब्धिरेव। कुत:?, इत्याह- तेषां श्रुतेः श्रवणस्य संभवात्। इदमुक्तं भवति- अभिलापरूपाणि ह्येतान्यक्षराणि, अभिलापश्च तस्मिन् वा विवक्षिते काले, अन्यदा वा, तत्र वा विवक्षिते पुरुषे, अन्यत्र वा श्रवणयोग्यत्वाच्छ्रोत्रेणोपलभ्यते। अतः श्रोत्रोपलम्भयोग्यत्वेन श्रुतिसंभवात् सर्वोऽप्यभिलापः श्रोत्रोपलब्धिरेव, इति न किञ्चिदवधारणं विरुध्यते // इति गाथार्थः // 125 // किं सर्वोऽपि शेषेन्द्रियाक्षरलाभः श्रुतम्, आहोस्वित् कश्चिदेव?, इत्याह सोऽवि हु सुयक्खराणं जो लाभो तं सुयं मई सेसा। जइ वा अणक्खरच्चिय सा सव्वा न प्पवत्तेज्जा // 126 // [संस्कृतच्छाया:- सोऽपि खलु श्रुताक्षराणां लाभस्तत् श्रुतं मतिः शेषः। यदि वाऽनक्षरैव सा सर्वा न प्रवर्तेत॥] (प्रश्न-) अहो! महान् आश्चर्य! (उक्त कथन तो आपने अत्यन्त विरुद्ध कर दिया!) यदि वह शेषइन्द्रिय-अक्षरलाभ है तो श्रोत्रोपलब्धि कैसे? यदि श्रोत्रोपलब्धि है तो शेषइन्द्रिय-अक्षरलाभ कैसे? इस आशंका को ध्यान में रखकर उत्तर दे रहे हैं- (श्रुतिसंभवात्)। शेष इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान में प्रतिभासमान अक्षर श्रोत्रोपलब्धि ही है। कैसे? उत्तर है- उनका श्रवण होने के कारण / तात्पर्य यह है कि ये अक्षर साभिलाप (शब्दोल्लेखहित) हैं, उसी काल में या विवक्षा (बोलने की इच्छा) के काल में, या किसी अन्य समय में, अथवा जिस पुरुष को लक्ष्य कर कहा जा रहा है उस व्यक्ति में, या अन्य पदार्थ में भी, शब्दोल्लेख होता है जो श्रवणयोग्यता के कारण श्रोत्र से उपलब्ध होता है। अतः श्रोत्र द्वारा उपलब्धि के योग्य होने के कारण, श्रवण से उत्पन्न होता हुआ समस्त शब्दोल्लेख श्रोत्र-उपलब्धि रूप ही है। इस प्रकार उक्त अवधारणात्मक कथन किसी भी तरह (पूर्वापर-) विरुद्ध नहीं सिद्ध होता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 125 // क्या शेष इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला समस्त अक्षर-लाभ (अक्षरोपलब्धि) श्रुत है, या कोईकोई (अक्षरलाभ ही श्रुत है)- इस शंका का समाधान करते हुए कह रहे हैं (126) सोऽवि हु सुयक्खराणं जो लाभो तं सुयं मई सेसा / जइ वा अणक्खरच्चिय सा सव्वा न प्पवत्तेज्जा // __ [(गाथा-अर्थः) (अक्षरलाभ में भी) जो श्रुताक्षरलाभ है, वह 'श्रुत' है और जो अनक्षर है वह मतिज्ञान माना जाये तो (सभी अनक्षर ज्ञान को मति मानने से) ईहा आदि सभी का मतित्व नहीं रह जाएगा (इसलिए श्रुतानुसारी होने वाला अक्षरलाभ ही श्रुत है, शेष मतिज्ञान है)।] Sa 198 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------