________________ 'अहण्णहत्तं वेति'। अथवा अन्यथात्वं किं मतेर्भाषापरिणतिकाले निर्मूलत एवाऽन्यथाभावः कः, येन श्रुतत्वं स्यात्?, न कश्चिदिति भावः। भाषाऽऽरम्भ एवाऽत्र विशेषः, इति चेत्, इत्याह- 'भासेत्यादि'। भाषायाः संकल्पप्रारम्भः स एव विशेषमात्रं, मात्रशब्दो मनागपि विकारभवननिषेधार्थः, तस्माद् भाषासंकल्पविशेषमात्राद् मतेः श्रुतत्वमयुक्तम्। एतदुक्तं भवति- अन्तर्विज्ञानस्य स्वयमविशिष्टस्य बाह्यक्रियारम्भादत्यन्तजातिभेदाभ्युपगमे धावन-वल्गन-करास्फोटनादिबाह्यक्रियाऽऽनन्त्याद् मतेरानन्त्यमेव स्यात्, स्वयं चाऽनुपजातविशेषाणां ज्ञानानां शब्दपरिणतिसंनिधानमात्रत एव ज्ञानान्तरत्वेऽतिप्रसङ्गः स्यात्, अवध्यादिष्वपि तथाप्राप्तेः॥ इति गाथार्थः॥१३४॥ तदेवं कैश्चिद् विहितं मूलगाथायाः पूर्वार्धव्याख्यानं दूषितम्, अथोत्तरार्धव्याख्यानमुपदर्श्य दूषयितुमाह इयरत्थ वि मइनाणे होज सुयं ति किह तं सुयं होइ?। किह व सुयं होइ मई सलक्खणावरणभेयाओ? // 135 // [संस्कृतच्छाया:- इतरत्रापि मतिज्ञाने भवेत् श्रुतमिति कथं तत् श्रुतं भवति? कथं वा श्रुतं भवति मतिः स्वलक्षणावरणभेदात्? // ] (अन्यथात्वं वा-) अथवा भाषापरिणति के समय, मति का ऐसा क्या समूल रूपान्तरण जैसा अन्य स्वरूप हो जाता है जिससे कि वह 'भावश्रुत' हो जाता है? अर्थात् कोई भी ऐसा भाव नहीं है? यदि कहो कि भाषा-आरम्भ ही वह वैशिष्ट्य है तो भी (उक्त आधार पर उसका श्रुतपना) असंगत है। (भाषासंकल्पः)- भाषा-सम्बन्धी संकल्प का प्रारम्भ होने मात्र से, अर्थात् अन्य कुछ भी विकार न होने और मात्र भाषा-संकल्प होने से, मति को भावश्रुत कहना (या मति का भाव श्रुत होना) युक्तियुक्त नहीं होता। तात्पर्य यह है कि स्वयं अविशिष्ट अन्तर्विज्ञान को किसी बाह्य क्रिया के आरम्भ मात्र से अत्यन्त भिन्न जाति का मान लिया जाय तो दौड़ना-बोलना-हाथ हिलाना आदि बाह्य क्रिया की अनन्तता से मति की अनन्तरूपता माननी पड़ेगी, और स्वयं विशेष-रहित ज्ञानों की शब्दपरिणति मात्र से ही ज्ञानान्तरता मानने पर अतिव्याप्ति हो जाएगी, क्योंकि अवधि आदि में वैसी (रूपान्तरता की) स्थिति माननी पड़ेगी (जो सर्वथा इष्ट, सम्मत नहीं है)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 134 // _इस प्रकार, पूर्वोक्त मूल गाथा के पूर्वार्द्ध का जो व्याख्यान अन्य लोगों ने किया, उसमें दोष अभी दिखाया गया, अब उत्तरार्द्ध सम्बन्धी व्याख्यान को प्रस्तुत कर उसमें दोष प्रदर्शित कर रहे हैं (135) इयरत्थ वि मइनाणे होज्ज सुयं ति किह तं सुयं होइ?। किह व सुयं होइ मई सलक्खणावरणभेयाओ? | ___ [(गाथा-अर्थः) अन्य मतिज्ञान में भी श्रुत हो सकता है (-ऐसा जो व्याख्यान किया गया) तो यह बताएं कि वह मति (ज्ञान) श्रुत कैसे होगा? जबकि (मति व श्रुत -इनमें से प्रत्येक का पृथक्पृथक् लक्षण तथा अपना-अपना पृथक्-पृथक् आवरण-कर्म, और उसका क्षयोपशम माना जाता है, इस प्रकार) उनमें आवरण-कर्म सम्बन्धी भेद है, इस कारण मति कभी श्रुत कैसे हो सकती है?] Via ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 209