________________ उत्तरार्धव्याख्यानमाह इयरत्थ विभावसुये होज तयं तस्समंजइ भणिज्जा। नय तरइ तत्तियं सो जमणेगगुणं तयं तत्तो॥१३०॥ [संस्कृतच्छाया:- इतरत्रापि भावश्रुते भवेत् तत् तत्समं यदि भणेत् / न च तरति (शक्नोति) तावत्स यदनेकगुणं तत् ततः॥] यद् भाषते तदुभयश्रुतं द्रव्यश्रुतं वेत्युक्ते भावश्रुतमेवेतरत्र-शब्दवाच्यं गम्यते। ततश्चेतरत्राऽपि भावश्रुते भवेत् तद् द्रव्यश्रुतमुभयश्रुतं वा, यदि तत्सममुपलब्धिसमं भणेत्, तच्च नास्ति, यस्माच्छ्रुतज्ञानी स्वबुद्ध्या यावदुपलभते तावद् वक्तुं 'न तरति' न शक्नोति। कुतः?, इत्याह- यद् यस्मात् कारणात् ततो भाषाविषयीकृताच्छ्रुतात् तदशक्यभाषणक्रियं भावश्रुतमनेकगुणमनन्तगुणम्, अतो नोपलब्धिसमं भणति // इति गाथार्थः॥१३०॥ उपलब्धिसममित्येतस्य समासविधिमाह अब पूर्वोक्त (117वीं) गाथा के उत्तरार्द्ध का व्याख्यान कर रहे हैं (130) इयरत्थ वि भावसुये होज्ज तयं तस्समं जइ भणिज्जा / न य तरइ तत्तियं सो जमणेगगुणं तयं तत्तो॥ [(गाथा-अर्थः) अन्यत्र भी भावश्रुत (द्रव्य श्रुत व उभयश्रुत) हो सकता है, यदि उपलब्धिप्रमाण बोला जा सके। किन्तु ऐसा करना सम्भव नहीं, क्योंकि उस (द्रव्यश्रुत या उभयश्रुत) से वह (नहीं बोला गया पदार्थ-समूह) अनेक गुना (अनन्तगुना) होता है।] व्याख्याः - जो बोलता है, वह द्रव्यश्रुत या उभयश्रुत है- ऐसा कहने के बाद 'अन्यत्र' यह कहने से अन्यत्र का अर्थ होगा द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत से अन्य स्थिति में। तब पूरा वाक्यार्थ होगाअन्यत्र भी भाव व श्रुत- यानी द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत हो सकते थे, यदि तत्प्रमाण, उपलब्धि के समान, बोला जा सके। किन्तु ऐसा बोल पाना सम्भव नहीं होता, क्योंकि श्रुतज्ञानी अपनी बुद्धि से जितना जानता है, उतना बोल नहीं पाता, बोल ही नहीं सकता। क्यों? उत्तर है- चूंकि भाषा के विषयभूत (बोले गए) श्रुत से, नहीं बोला जा सकने वाला भावश्रुत, अनेकगुना यानी अनन्तगुना होता है, अतः उपलब्धिसमान नहीं बोल पाता || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 130 // 'उपलब्धिसम' इस पद से सम्बन्धित समास, तथा तदनुरूप तात्पर्य का निरूपण कर रहे हैं Ma 204 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------