________________ श्रुतानुसारिसाभिलापज्ञानरूपोऽत्राधिक्रियते, श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि चैवंभूतैव श्रुतमुक्ता। ततश्च साभिलापविज्ञानं शेषेन्द्रियद्वारेणाऽप्युत्पन्नं योग्यतया श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव मन्तव्यम्, अभिलापस्य सर्वस्यापि श्रोत्रेन्द्रियग्रहणयोग्यत्वादिति // अत्राह- ननु 'सोइंदिओवलद्धी होइ सुयं' तथा 'अक्खरलम्भो य सेसेसु' इत्युभयवचनाच्छ्रुतज्ञानस्य सर्वेन्द्रियनिमित्तता सिद्धा, तथा सेसयं तु मइनाणं' इति वचनात्, तुशब्दस्य समुच्चयाच्च मतिज्ञानस्यापि सर्वेन्द्रियकारणता प्रतिष्ठिता, भवद्भिस्त्विन्द्रियविभागाद् मति-श्रुतयोर्भेदः प्रतिपादयितुमारब्धः, स चैवं न सिध्यति, द्वयोरपि सर्वेन्द्रियनिमित्ततायास्तुल्यत्वप्रतिपादनादिति / अत्रोच्यते-साधूक्तं . भवता, किन्तु यद्यपि शेषेन्द्रियद्वाराऽऽयातत्वात् तदक्षरलाभः शेषेन्द्रियोपलब्धिरुच्यते, तथाऽप्यभिलापात्मकत्वादसौ श्रोत्रेन्द्रियग्रहणयोग्य एव, ततश्च तत्त्वतः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेवाऽयम्। तथा च सति परमार्थतः सर्वं श्रोत्रविषयमेव श्रुतज्ञानम्, मतिज्ञानं तु तद्विषयं शेषेन्द्रियविषयं च सिद्धं भवति, अत इत्थमिन्द्रियविभागाद् मति-श्रुतयोर्भेदो न विहन्यते, इत्यलं विस्तरेण // इति पूर्वगतगाथासंक्षेपार्थः // 117 // अथ विस्तरार्थमभिधित्सुर्भाष्यकार एव परेण पूर्वपक्षं कारयितुमाह अक्षर लाभ माना गया है, वह श्रुतानुसारी शब्दोल्लेखहित ज्ञान रूप यहां अधिकृत (गृहीत) है, और वैसी ही जो श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि होती है, वही 'श्रुत' कही गई है। इसलिए शब्दोल्लेखसहित शेष (चक्षु आदि) इन्द्रियों से उत्पन्न होकर भी वह उपलब्धि योग्यता (क्षमता) की दृष्टि से, श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि रूप ही है-ऐसा मानना चाहिए, क्योंकि समस्त शब्दोल्लेख श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य होते हैं। अब किसी ने प्रश्न किया- 'श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि श्रुत होती है' और 'शेष इन्द्रियों से भी होने वाला अक्षरलाभ श्रुत है'- इन दोनों कथनों से यह सिद्ध होता है कि श्रुतज्ञान सभी (श्रोत्र या अन्य) इन्द्रियों के निमित्त से होता है। दूसरी तरफ 'शेष इन्द्रियों की उपलब्धि तो श्रुतज्ञान है' इस कथन में समुच्चयबोधक 'तो' पद से मतिज्ञान में भी सभी इन्द्रियों की कारणता सिद्ध होती है। ऐसी स्थिति में (दोनों की समानता के सिद्ध होने से) आपने इन्द्रिय-विभाग के आधार पर मति-श्रुत के भेद का प्रतिपादन प्रारम्भ किया, वही असिद्ध हो जाता है, क्योंकि दोनों ही ज्ञान इन्द्रिय-कारणता की दृष्टि से समान हैं- ऐसा आप द्वारा (अभी) प्रतिपादित किया जा रहा है। इसका उत्तर यहां दिया जा रहा हैआपने ठीक कहा, किन्तु, यद्यपि शेष इन्द्रियों से प्राप्त होने से उस अक्षरलाभ को शेषइन्द्रियोपलब्धि रूप कहा जाता है, तथापि (वस्तुतः तो) शब्दोल्लेखसहित होने से श्रोत्रेन्द्रिय-ग्रहणयोग्य ही है, जिसके फलस्वरूप (वस्तुतः) तात्त्विक दृष्टि से वह श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि रूप ही है। ऐसी स्थिति में परमार्थ रूप में समस्त श्रोत्रविषय श्रुतज्ञान है, जबकि मतिज्ञान श्रोत्रेन्द्रियविषय और शेषइन्द्रियविषय- दोनों प्रकार का सिद्ध होता है। इसलिए उक्त रीति से इन्द्रिय-विभाग की दृष्टि से मति व श्रुत में होने वाले भेद या अन्तर का निराकरण नहीं होता। अब अधिक विस्तार में लिखने की जरूरत नहीं है। यह पूर्व की गाथा का संक्षिप्त अर्थ है // 117 // अब पूर्व की गाथा के अर्थ को विस्तार से कहने की इच्छा रखते हुए भाष्यकार स्वयं ही किसी अन्य की ओर से पूर्वपक्ष (शंका) प्रस्तुत कर रहे हैंMa 188 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------