________________ सोओवलद्धी जइ सुयं न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी। अह बुद्धीओ न सुयं अहोभयं संकरो नाम॥११८॥ [संस्कृतच्छाया:- श्रोत्रोपलब्धिः यदि श्रुतं न नाम श्रोत्रावग्रहादयो बुद्धिः। अथ बुद्धयो न श्रुतम्, अथोभयं संकरो नाम // ] 'श्रोत्रोपलब्धिरेव श्रुतम्' इत्यवधारणार्थमनवगच्छतः श्रुतमेव तदुपलब्धिः ' इत्येवं च तदर्थमवबुध्यमानस्य परस्य वचनमिदम्, तद्यथा- यदि श्रोत्रोपलब्धिः श्रुतमेव, तहि 'नाम' इति कोमलामन्त्रणे, अहो! श्रोत्रेन्द्रियद्वारोत्पन्ना अवग्रहेहादयो बुद्धिर्मतिज्ञानं न प्राप्नुवन्ति, तदुपलब्धेः सर्वस्या अपि श्रुतत्वेनाऽवधारणात्। मा भूवंस्ते मतिज्ञानम्, किं नः श्रूयते? इति चेत् / नैवम्, तथा सति तस्य वक्ष्यमाणाऽष्टाविंशतिभेदभिन्नत्वहानेः। अथैतद्दोषभयाद् बुद्धिस्तेऽभ्युपगम्यन्ते, ततस्तर्हि न ते श्रुतम्, तथा च सति 'सोइन्दिओवलद्धी होइ सुयं' इत्यसंगतं प्राप्नोति। अथोभयदोषपरिहारार्थं 'उभयं' बुद्धिश्च श्रुतं च ते इष्यन्ते / तद्देवं सत्येकस्थानमीलितक्षीर-नीरयोरिव संकरः संकीर्णता मति-श्रुतयोराप्नोति, न पृथग्भावः। अथवा' यदेव मतिस्तदेव श्रुतं, यदेव च श्रुतं तदेव मतिः' इत्येवमभेदोऽप्यनयोः स्यात्, इति स्वयमेव द्रष्टव्यम्, भेदश्चेह तयोः प्रतिपादयितुं प्रस्तुतः, तदेतच्छान्तिकरणप्रवृत्तस्य वेतालोत्थानम्॥ इति प्रेरकगाथार्थः // 118 // (118) सोओवलद्धी जइ सुयं न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी। ___ अह बुद्धीओ न सुयं अहोभयं संकरो नाम // [(गाथा-अर्थः) यदि श्रोत्र-उपलब्धि श्रुत ही है तो श्रोत्रेन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले अवग्रहादि मतिज्ञान नहीं रह पाएंगें, यदि वे मतिज्ञान हैं तो श्रोत्रोपलब्धि को श्रुत कहना असंगत होगा, और उक्त उपलब्धि को मति-श्रुत उभयरूप मानेंगे तो सांकर्य दोष पैदा हो जाएगा।] व्याख्याः- यह शंका उस व्यक्ति की ओर से प्रस्तुत है जो ‘श्रोत्रेन्द्रिय उपलब्धि श्रुत है' इस वाक्य का जो 'श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि ही श्रुत है'- यह (वास्तविक) अर्थ है, उससे अनभिज्ञ है और उस . वाक्य का अर्थ यह समझ बैठा है कि 'श्रुत ही श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि है'। यहां गाथा में 'नाम' यह अव्यय पद कोमल, अनादररहित सम्बोधन का सूचक है- (अतः शंकाकार का कथन इस प्रकार होगा-) मान्यवर! यदि श्रोत्रोपलब्धि श्रुत ही है, तो श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा उत्पन्न होने वाले अवग्रह-ईहा रूप ज्ञान मतिज्ञान नहीं रह पाएंगे, क्योंकि उस समस्त उपलब्धि को 'श्रुत' रूप में निर्णीत किया है। यदि ऐसा कहें कि वे मतिज्ञान न कहलाएं तो क्या हानि है? तो वह भी असंगत है क्योंकि उन्हें मतिज्ञान न मानने पर, मतिज्ञान के अवग्रह आदि जो 28 भेद कहे जाने वाले हैं, वे असंगत हो जाएंगे (अर्थात् उसके भेदों की उतनी संख्या नहीं रह पाएगी)। और यदि उक्त दोष के भय से, उन्हें मतिज्ञान मानते हैं तो वे 'श्रुत' नहीं कहे जा सकते, और तब ‘श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि श्रुत (ही) है' यह कथन असंगत हो जाएगा | अब यदि दोनों दोषों के परिहार (निराकरण) हेतु उन्हें मति व श्रुत- दोनों रूप माना जाए, तब तो एक ही स्थान (क्षेत्र) में दूध व पानी (के मिश्रण) की तरह मति व श्रुत की Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 189 र