________________ द्रव्यश्रुतस्य च भावश्रुतलक्षणता मतान्तरवादिनां विपर्यस्तत्वप्रतिपादनार्थमुपदर्शिता, भावश्रुतप्रभवस्यापि शब्दस्य तैर्मतिपूर्वत्वप्रतिपादनात् / / इति गाथार्थः॥११३॥ अथ यथा मति-श्रुतयोः कार्य-कारणभावाद् भेदः, तथा तयोः प्रत्येकं स्वस्थानेऽपि सम्यक्त्व-मिथ्यात्वपरिग्रहाद् भेद एवेत्यनुषङ्गतो दर्शयितुं नन्द्यध्ययनागमे मति-श्रुतयोः कार्य-कारणभावेन भेदप्रतिपादनानन्तरमिदं सूत्रमस्ति, तद् यथा "अविसेसिया मई मइनाणं च मइअन्नाणं च, विसेसिया मई-सम्मद्दिट्ठिस्स मई मइनाणं, मिच्छादिविस्स मई मइअन्नाणं, एवं अविसेसियं सुयं सुयनाणं सुयअन्नाणं च, विसेसियं सुयं-सम्मदिट्ठिस्स सुयं सुयनाणं, मिच्छादिट्ठिस्स सुयं सुयअन्नाणं" [अविशेषिता मतिर्मतिज्ञानं च मत्यज्ञानं च विशेषिता मतिः- सम्यग्दृष्टेर्मतिर्मतिज्ञानम्, मिथ्यादृष्टेर्मतिः मत्यज्ञानम्, एवम् अविशेषितं श्रुतं श्रुतज्ञानं च श्रुत-अज्ञानं च, विशेषितं श्रुतम्- सम्यग्दृष्टेः श्रुतं श्रुतज्ञानम्, मिथ्यादृष्टेः श्रुतं श्रुत-अज्ञानम्।] सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टिसंबन्धतोऽविशेषितेन मतिशब्देन मतिज्ञानं मत्यज्ञानं च द्वे अपि प्रतिपाद्यते, सम्यग्दृष्टित्वविशेषितेन तु मतिध्वनिना मतिज्ञानमेवोच्यते, मिथ्यादृष्टित्वविशेषितेन तु तेनैव मत्यज्ञानमेवाऽभिधीयते, एवं श्रुतेऽपि वाच्यमिति सूत्रभावार्थः। तदेतदानुषङ्गिकं सूत्रोक्तमनुवर्तमानो भाष्यकारोऽप्याह ___ 'द्रव्यश्रुत भावश्रुत का लक्षण है'- यह कह कर अन्य मत वालों के कथन की विपरीतता को दर्शाया गया है क्योंकि भावश्रुत से उत्पन्न होने वाले शब्द को भी वे मतिपूर्वक मानते हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 113 // (ज्ञान-अज्ञान विचार) . अब, मति व श्रुत में कार्य-कारण रूप से भी भेद है, तथा उनमें से प्रत्येक भी स्वगत सम्यक्त्व या मिथ्यात्व (के ग्रहीता) होने के कारण भी भेद है- इसे प्रासंगिक रूप में बताना चाहते हैं। इसी सम्बन्ध में, नन्दी सूत्र में भी कार्य-कारणभेद से उनके भेद प्रतिपादित करने के बाद एक सूत्र (जिसका अर्थ यह है-) प्रस्तुत है- "अविशेषित मति मतिज्ञान व मति-अज्ञान है, परन्तु विशेषित मति जब सम्यक्दृष्टि के हो तो मतिज्ञान है और जब मिथ्यादृष्टि के हो तो मति-अज्ञान है। इसी प्रकार अविशेषित श्रुत (श्रुत-)ज्ञान व (श्रुत-)अज्ञान है, किन्तु विशेषित श्रुत जब सम्यक्दृष्टि को हो तो श्रुत-ज्ञान, किन्तु मिथ्यादृष्टि के हो तो श्रुत-अज्ञान होता है। इस सूत्र का भावार्थ यह है कि सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा न रखकर (उसके भेद को गौण कर) सामान्य रूप से मतिशब्द के द्वारा दोनों- मतिज्ञान व मति-अज्ञान का प्रतिपादन होता है, किन्तु जैसे सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से ‘मति' शब्द से मति-ज्ञान ही कहा जाता है और मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से उसी मतिशब्द से मतिअज्ञान कहा जाता है, इसी प्रकार श्रुत के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। इसी सूत्र में प्रतिपादित एवं आनुषङ्गिक अर्थ को दृष्टि में रखते हुए भाष्यकार अग्रिम गाथा में कह रहे हैं -- विशेषावश्यक भाष्य - - - - ---- 181 - - - -