________________ एवं विवयंति नया मिच्छाभिनिवेसओ परोप्परओ। इयमिह सव्वनयमयं जिणमयमणवज्जमच्चंतं // 72 // [संस्कृतच्छाया:- एवं विवदन्ति नया मिथ्याभिनिवेशतः परस्परतः / इदमिह सर्वनयमयं जिनमतमनवद्यमत्यन्तम्॥] एवमुक्तप्रकारेण परस्परतो मिथ्याभिनिवेशाद् विवदन्ते विवादं कुर्वन्ति नामनयादयो नयाः। ततश्च मिथ्यादृष्टय एते, असंपूर्णार्थग्राहित्वात्, गजगात्रभिन्नदेशसंस्पर्शने बहुविधविवादमुखरजात्यन्धवृन्दवत् / यदि नामैते मिथ्यादृष्टयः, तर्हि निर्मिथ्यं किम्? इत्याह- इदमिहैव लोके वर्तमानमनुभवप्रत्यक्ष-सिद्धं जिनमतं जैनाभ्युपगमरूपम्। कथंभूतम्?, सर्वनयमयं निःशेषनयसमूहाभ्युपगमनिवृत्तम्, अत्यन्तमनवद्यं नामादिनयपरस्परोद्भाविताऽविद्यमाननिःशेषदोषं, संपूर्णार्थग्राहित्वात्, चक्षुष्मतां समन्तात् समस्तहस्तिशरीरदर्शनोल्लापवत् // इति गाथार्थः // 72 // तथा च संपूर्णार्थग्रहरूपं जिनमतमेव दर्शयति // 72 // एवं विवयंति नया, मिच्छाभिनिवेसओ परोप्परओ। - इयमिह सव्वनयमयं, जिणमयमणवज्जमच्चंतं // [(गाथा-अर्थः) इस प्रकार सभी नय, मिथ्या अभिनिवेश के कारण परस्पर विवाद करते हैं, किन्तु जिनमत तो सर्वनयात्मक है और (इसलिए) वह (निर्विवाद और) निर्दोष है।] - व्याख्याः- इस तरह उक्त प्रकार से नाम आदि नय परस्पर मिथ्या-अभिनिवेश के कारण (एक दूसरे को मिथ्या ठहराने के दुराग्रह से) विवाद करते हैं। इसलिए वे मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि प्रत्येक नय असंपूर्ण पदार्थ को ग्रहण (विषय) करता है। यह उसी प्रकार की स्थिति है जैसे हाथी के भिन्न-भिन्न अंग-अवयव को छू कर कुछ जन्मान्ध व्यक्ति (अपने द्वारा स्पृष्ट अंग के रूप में हाथी का स्वरूप समझ कर) परस्पर विविध प्रकार के विवाद में उलझ रहे हों। (प्रश्न-) यदि- ये (नय) मिथ्यादृष्टि हैं तो मिथ्यात्वरहित यानी समीचीन नय क्या होगा? (उत्तर-) लोक में यह जो प्रत्यक्षसिद्ध जिनमत है, वह (समीचीन) है। वह जिनमत कैसा है? सर्वनयमय है, यानी सर्वनयात्मक है, समस्त नयों की मान्यताओं का एक समन्वित रूप है, अतः अत्यन्त निर्दोष है। नाम आदि नयों द्वारा परस्पर प्रदर्शित दोषों का उसमें अभाव है, क्योंकि वह सम्पूर्ण अर्थ का उसी प्रकार ग्रहण करता है, जिस प्रकार आंख वाले व्यक्तियों को हाथी का सम्पूर्ण शरीर प्रत्यक्ष नेत्रगोचर होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||72 // अब सम्पूर्ण अर्थ-ग्राही स्वरूप वाले जिनमत को ही बता रहे हैं ----------- विशेषावश्यक भाष्य -- -- ---- 113