________________ मतिरेव, शब्दविवक्षाज्ञानवत्, शब्दविवक्षाज्ञानेऽपि हि शब्दविकल्पोऽस्ति, तमन्तरेण शब्दाभिधानासंभवात्, न चासौ भावश्रुतत्वेनेष्टः, तस्माद् मतेरनन्तरं सर्वत्र शब्दमात्रस्यैवोत्थानम्, न भावश्रुतस्य, अस्मत्पक्षाङ्गीकरणप्रसङ्गात्, विकल्पज्ञानानि च विवक्षाज्ञानवद् मतित्वेनोक्तान्येव, इति सर्वत्र भावश्रुताभावः प्रसजति। भवतु स तर्हि, इति चेत् / इत्याह-'नय विसेसो त्ति'। भावश्रुताभावे मति-श्रुतयोर्विशेषो भेदश्चिन्तयितव्यो न स्यात्, स हि द्वयोरेवोपपद्यते / यदा च मतिरेवास्ति, न भावश्रुतम् , तदा तस्याः केन सह भेदचिन्ता युज्येत? इति भावः। द्रव्यश्रुतरूपेण शब्देन सह मतेर्भेदचिन्ता भविष्यतीति चेत् / तदयुक्तम्, ज्ञानपञ्चकविचारस्येहाऽधिकृतत्वात्, तदधिकारे च शब्देन सह भेदचिन्ताया अप्रस्तुतत्वात् / चिन्त्यतां वा 'मतिपूर्वं द्रव्यश्रुतम्' इत्येवं मतेः शब्देनापि सह विशेषः, किन्तु सोऽपि न घटते॥ इति गाथार्थः॥१११॥ ही मत (मतिपूर्वक भावश्रुत) को स्वीकार कर लेते हैं। ‘हम मतिज्ञानपूर्वक’ उसे नहीं मानते यह कहना भी आपका ठीक नहीं होगा, क्योंकि वह (अन्तर्जल्पात्मक ज्ञान) सविकल्पक होने के कारण उसी प्रकार मतिज्ञान ही है जिस प्रकार शब्द को बोलने की इच्छा रूप ज्ञान (मतिज्ञान ही) होता है। और शब्दविवक्षा-ज्ञान में शब्दात्मक विकल्प ही होता है, क्योंकि उस (विकल्प) के बिना शब्द का उच्चारण सम्भव नहीं हो पाएगा। उस (शब्दात्मक विकल्प) को भावश्रुत नहीं माना जा सकता है। इसलिए, सिद्ध यह हुआ कि मतिज्ञान के बाद सर्वत्र शब्दमात्र की ही उत्पत्ति होती है, न कि भावश्रुत की, अन्यथा हमारे मत को स्वीकार करने (तथा स्वपक्ष-च्युत होने का) संकट आ खड़ा होगा। विकल्प ज्ञानों को -बोलने की इच्छा से सम्बन्धित ज्ञान की तरह- मतिज्ञान रूप ही कहा ही जा चुका है। इसलिए 'द्रव्यश्रुत मतिपूर्वक है' इस व्याख्यान में सर्वत्र भावश्रुत के अभाव का प्रसंग (दोष) आ जाता है। (अन्यमत-व्याख्याता की ओर से प्रश्न-) वह (भावश्रुत का अभाव) हो तो हो, हानि क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा- (न च विशेषः)। भावश्रुत के अभाव से मति व श्रुत में विशेष, भेद का विचार ही समाप्त हो जाएगा, क्योंकि भेद तो दो वस्तुओं में किया जाता है, और जब मति ज्ञान ही है, भावश्रुत है ही नहीं, तब (मतिज्ञान के) भेद का विचार किसके साथ किया जा सकेगा- यह भाव है। (अन्य मत-व्याख्याता की ओर से पुनः प्रश्न-) शब्द रूप द्रव्यश्रुत के साथ मतिज्ञान के भेद का विचार किया जा सकता है। (उत्तर)- आपका उक्त कथन ठीक नहीं। पांच ज्ञानों के विचार का यह प्रकरण है, उस प्रकरण में (किसी ज्ञान को छोड़कर) शब्द के साथ मतिज्ञान के भेद का विचार करना प्रकरणोचित नहीं होगा। अथवा -भले ही 'मतिपूर्वक द्रव्यश्रुत' ऐसा व्याख्यान कर मतिज्ञान का शब्द के साथ भी भेद का विचार करें तो भी वह भेद घटित नहीं होता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 111 // Mar 178 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------