________________ किमिति?, इत्याह- यद् यस्मात् कारणात् तत्र तस्यां मतौ अवस्थानं स्थितिर्भवति, श्रुतोपयोगाच्च्युतस्य ततः क्रमेण मतिं न निषेधयामः। इदमुक्तं भवति- यथा सामान्यभूतेन सुवर्णेन स्वविशेषरूपाः कङ्कणाऽङ्गलीयकादयो जन्यन्ते, अतस्ते तत्कार्यव्यपदेशं लभन्त एव, सुवर्णं त्वतज्जन्यत्वात् तत्कार्यतया न व्यवह्रियते, तस्य कारणान्तरेभ्यः सिद्धत्वात्, कङ्कणादिविशेषोपरमे तु सुवर्णावस्थानं क्रमेण न निवार्यते, एवं मत्याऽपि सामान्यभूतया स्वविशेषरूपश्रुतोपयोगो जन्यते, अतस्तत्कार्यं स उच्यते, मतिस्त्वतजन्यत्वात् तत्कार्यतया न व्यपदिश्यते, तस्या हेत्वन्तरात् सदा सिद्धत्वात्, स्वविशेषभूतश्रुतोपयोगोपरमे तु क्रमायातं मत्यवस्थानं न निवार्यते, आमरणान्तं केवलश्रुतोपयोगप्रसङ्गात् // इति गाथार्थः // 110 // तदेवं भावश्रुतं मतिपूर्वं व्यवस्थाप्य मतान्तरमुपदर्शयन्नाह दव्वसुयं मइपुव्वं भासइ जं नाविचिंतियं केइ। भावसुयस्साभावो पावइ तेसिं न य विसेसो॥१११॥ (प्रश्न-) ऐसा क्यों? इसके उत्तर में कहा- (यत् तत्र-) श्रुतोपयोग से च्युत (पतित) होने वाले का अवस्थान (ठहराव) मतिज्ञान में होता है, और क्रम से होने वाले मतिज्ञान का हम निषेध नहीं करते। तात्पर्य यह है कि जैसे (विविध आभूषणों में) 'सामान्य' रुप द्रव्य सुवर्ण होता है और उससे कंकण व अंगूठी आदि 'विशेष' कार्यभूत स्वरूपों की उत्पत्ति होती है, अतः वे (कंकण आदि) उस (सुवर्ण) के 'कार्य' कहलाते ही हैं, किन्तु सुवर्ण को व्यवहार में (उन कंकणों से उत्पन्न न होने के कारण) उन (कंकणादि) का कार्य नहीं माना जाता, क्योंकि उस (सुवर्ण) का अन्य कारणों से सत्ता में आना सिद्ध ही है। फिर भी कंकण आदि विशेष रूपों के नष्ट होने पर, पुनः,मात्र सुवर्ण (सामान्य रूप में) रह जाता है, अतः इस क्रम से होने वाली सुवर्ण की स्थिति का निषेध नहीं किया जाता। उसी प्रकार मतिज्ञान सामान्य रूप है, चंकि उससे उसका विशेष रूप श्रतोपयोग उत्पन्न होता है. इसलिए श्रुतोपयोग उस मतिज्ञान का कार्य कहा जाता है। किन्तु मति को श्रुतं का कार्य नहीं कहा जाता, क्योंकि मतिज्ञान श्रुतज्ञान से उत्पन्न नहीं होता और उस (मतिज्ञान) का अन्य कारणों से होना भी सर्वदा सिद्ध है। किन्तु श्रुतोपयोग से विरत होने पर व्यक्ति की क्रम से प्राप्त मतिज्ञान में अवस्थिति का निषेध नहीं किया जा रहा हैं, अन्यथा (यदि श्रुतज्ञान से हट कर कभी मतिज्ञान में स्थिति होना नहीं माना जाय तो) आजीवन श्रुतोपयोग के ही रहने का प्रसंग उठ खड़ा होगा | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 110 // इस प्रकार, भावश्रुत को मतिपूर्वक सिद्ध कर, इस सम्बन्ध में अन्य मत को प्रस्तुत कर रहे हैं (111) दव्वसुयं मइपुव्वं भासइ जं नाविचिंतियं केइ। भावसुयस्साभावो पावइ तेसिं न य विसेसो // NAL 176 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----