________________ तदेवं मतिपूर्वं श्रुतमिति समर्थितम्, परस्तु मतेरपि श्रुतपूर्वताऽऽपादनेनाऽविशेषज्ञमुद्भावयन्नाह सोऊण जा मई भे सा सुयपुव्व त्ति तेण न विसेसो। __सा दव्वसुयप्पभवा भावसुयाओ मई नत्थि // 109 // [संस्कृतच्छाया:- श्रुत्वा या मनिर्भवतां सा श्रुतपूर्वेति तेन न विशेषः। सा द्रव्यश्रुतप्रभवा भावश्रुताद् मतिर्नास्ति // ] परस्माच्छब्दं श्रुत्वा तद्विषया 'भे' भवतामपि या मतिरुत्पद्यते सा श्रुतपूर्वा श्रुतकारणैव, शब्दस्य श्रुतत्वेन प्रागुक्तत्वात्, तस्याश्च मतेस्तत्प्रभवत्वेन भवतामपि सिद्धत्वात्। ततश्च न विसेसो त्ति'। अन्योन्यपूर्वभावितायां मति-श्रुतयोर्न विशेष इत्यर्थः। तथा च सति 'न मई सुयपुब्विय त्ति' यदुक्तं प्राक्, तदयुक्तं प्राप्नोतीति भावः॥ अत्रोत्तरमाह- परस्माच्छब्दमाकर्ण्य या मतिरुत्पद्यते,सा हन्त! शब्दस्य द्रव्यश्रुतमात्रत्वाद् द्रव्यश्रुतप्रभवा, न भाव श्रुतकारणा, एतत् तु न केनापि वार्यते, किन्त्वेतदेव वयं ब्रूमो यदुत- भावश्रुताद् मतिर्नास्ति, भावश्रुतपूर्विका मतिर्न भवतीत्यर्थः, द्रव्यश्रुतप्रभवा तु भवतु, को दोषः? // इति गाथार्थः // 109 // . इस प्रकार श्रुत मतिपूर्वक होने का समर्थन कर दिया गया। किन्तु फिर भी शंकाकार मति को श्रुतपूर्वक सिद्ध करते हुए दोनों में कोई भेद नहीं है, ऐसा बता रहा है (भाष्यकार उसके कथन को पूर्वपक्ष में रखते हुए, उसका समाधान भी प्रस्तुत कर रहे हैं) (109) सोऊण जा मई भे सा सुयपुव्व त्ति तेण न विसेसो। सा दव्वसुयप्पभवा भावसुयाओ मई नत्थि॥ [(गाथा-अर्थः) (शंका-) (अन्य से) शब्द सुनकर भी आपके मत में मतिज्ञान उत्पन्न होता है, अतः (दोनों में) कोई भेद नहीं है। (उत्तर-) (शब्द सुनकर होने वाला मतिज्ञान) द्रव्यश्रुत से उत्पन्न होता है, भावश्रुत से (उत्पन्न) नहीं होता] / ___ व्याख्याः - (प्रश्न-) दूसरे के शब्द को सुनकर, किसी के मतिज्ञान होना आपके मत में भी (मान्य) है, वह मतिज्ञान श्रुतपूर्वक (ही तो) है, क्योंकि शब्द को श्रुत (आप द्वारा) पहले कहा गया है। इस प्रकार मतिज्ञान भी श्रुतपूर्वक है -ऐसा आपकी मान्यता के अनुरूप सिद्ध होता है। दोनों जब एक-दूसरे से उत्पन्न हैं या एक-दूसरे को उत्पन्न करते हैं, तब दोनों में कुछ अन्तर कहां रहा? अर्थात् कोई अन्तर नहीं है। और इस स्थिति में, आपने पहले जो यह कहा- “श्रुतपूर्वक मतिज्ञान नहीं होता" वह भी असंगत ठहर जाता है। अब भाष्यकार उत्तर दे रहे हैं-दूसरे से शब्द को सुनकर जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है, वह तो मात्र द्रव्यश्रुत से उत्पन्न है क्योंकि शब्द को द्रव्यश्रुत कहा गया है, अतः वह मतिज्ञान भावश्रुत से उत्पन्न नहीं होता। द्रव्यश्रत से मतिज्ञान की उत्पत्ति का तो खण्डन कोई नहीं करता। किन्त हमारा तो यह कहना है कि भावश्रुत से मति उत्पन्न नहीं होती अर्थात् भावश्रुतपूर्वक मति नहीं होती। वह द्रव्यश्रुत से उत्पन्न हो तो दोष क्या है? (अर्थात् कोई दोष नहीं है।) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 109 // Ma 174 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------