________________ [संस्कृतच्छाया:- ज्ञाने अज्ञाने च समकाले यतो मतिश्रुते। ततो न श्रुतं मतिपूर्वं मतिज्ञाने वा श्रुताज्ञानम्॥] इह मति-श्रुते वक्ष्यमाणयुक्त्या द्विविधे-सम्यग्दृष्टेर्ज्ञानस्वरूपे, मिथ्यादृष्टेस्त्वज्ञानस्वभावे। तत्र ज्ञाने अज्ञाने चैते प्रत्येक समकालमेव भवतः, तत्क्षयोपशमलाभस्याऽऽगमे युगपदेव निर्देशात् / यतश्चैते ज्ञाने अज्ञाने च मति-श्रुते पृथक् समकाले भवतः, ततो न श्रुतं मतिपूर्वं युज्यते, नहि सममेवोत्पन्नयोः सव्येतरगोविषाणयोरिव पूर्व-पश्चाद्भावः संगच्छते। अथोत्सूत्रोऽप्यसदाग्रहवशात् स न त्यज्यते, इत्याह- 'मइणाणे वा इत्यादि' / इदमुक्तं भवति-मतिज्ञाने समुत्पन्ने तत्समकालं च श्रुतज्ञानेऽनभ्युपगम्यमाने श्रुत-अज्ञानं जीवस्य प्रसज्यते, श्रुतज्ञानानुत्पादेऽद्यापि तदनिवृत्तेः, न च ज्ञानाऽज्ञानयोः समकालमवस्थितिरागमे क्वचिदप्यनुमन्यते, विरोधात्-ज्ञानस्य सम्यग्दृष्टिसंभवित्वात्, अज्ञानस्य तु मिथ्यादृष्टिभावित्वात् // इति गाथार्थः // 107 // [(गाथा-अर्थः) मति-श्रुत ज्ञान और मतिश्रुत-अज्ञान (-ये दोनों आगे-पीछे नहीं, अपितु) समकाल में ही होते हैं, अतः श्रुत मतिपूर्वक नहीं है, अन्यथा मतिज्ञान के होने पर भी श्रुत-अज्ञान का सद्भाव मानना पड़ेगा।] व्याख्याः- आगे जैसा कहा जाएगा, उस रीति से यहां मति व श्रुत के दो प्रकार (विवक्षित) हैं- (1) सम्यग्दृष्टि के होने वाले (सम्यक्) ज्ञान-स्वरूप (मतिज्ञान व श्रुतज्ञान), (2) मिथ्यादृष्टि के होने वाले (मति-अज्ञान व श्रुत-अज्ञान) अज्ञानस्वरूप / इनमें (सम्यक्) ज्ञान रूपता या अज्ञानरूपता, प्रत्येक की एक दूसरे की समकालीन होती है (अर्थात् जिस समय मतिज्ञान होगा, उसी समय श्रुतज्ञान होगा, जिस समय मति-अज्ञान होगा, उसी समय श्रुत-अज्ञान होगा), क्योंकि आगम में उन दोनों के क्षयोपशम का साथ ही होना बताया गया है। चूंकि ये मति-श्रुत ज्ञान या अज्ञान रूप में समकाल में ही होते हैं, अतः 'श्रुत मतिपूर्वक है' यह कहना संगत नहीं होता, क्योंकि समकाल में उत्पन्न होने वाले दो पदार्थों में पूर्व-उत्तरकालीनता उसी प्रकार संगत नहीं होती, जिस प्रकार बाएं व दाएं सींग में (पूर्व-उत्तरकालीनता संगत या मान्य नहीं होती)। ___ अपने असद् आग्रह के कारण, आगम-विरुद्ध कथन को आप छोड़ना नहीं चाहते- इसे (शंकाकार की ओर से) प्रतिपादित किया जा रहा है- (मतिज्ञाने वा-)। तात्पर्य है कि (सम्यक्) मतिज्ञान के उत्पन्न होने पर, उसके समकाल में ही (सम्यक्) श्रुत ज्ञान को उत्पन्न हुआ नहीं माना जाय तो जीव को (सम्यक् मतिज्ञान के सद्भाव में भी) श्रुत-अज्ञान (मिथ्याश्रुतज्ञान) का प्रसंग आ खड़ा होगा, क्योंकि जब तक (सम्यक्) श्रुतज्ञान न हो, तब तक श्रुत-अज्ञान (मिथ्याश्रुतज्ञान) मानना पड़ेगा, परन्तु ऐसा मानना आगम-विरुद्ध है। ज्ञान व अज्ञान की (अर्थात् मतिज्ञान व श्रुत-अज्ञान की) समकालस्थिति का कहीं भी आगम में अनुमोदन (समर्थन) नहीं है, क्योंकि इन दोनों में परस्पर- विरोध है, जैसे -ज्ञान सम्यग्दृष्टि को होता है और अज्ञान मिथ्यादृष्टि को (ऐसा नियम है)।यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 107 // Ma 172 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------