________________ [संस्कृतच्छाया:- द्रव्यश्रुतं मतिपूर्वं भाषते यद् नाऽविचिन्तितं केचित् / भावश्रुतस्याभावः प्राप्नोति तेषां न च विशेषः॥] 'केइ त्ति "मतिपूर्वं श्रुतम्' इत्यत्रागमवचने केचिदेवं व्याचक्षते / किम्?, इत्याह- द्रव्यश्रुतं शब्दरूपं मतिपूर्वम्, न भावश्रुतम्। तत्र युक्तिमाह- 'भासइ जनाविचिंतियं ति'। यद् यस्मात् कारणात् अविचिन्तितमविवक्षितं न कोऽपि भाषते न शब्दमुदीरयति, यच्च विवक्षाज्ञानं तत् किल मतिरिति तेषामभिप्रायः, ततश्च मतिपूर्वं द्रव्यश्रुतं सिद्धं भवति। एतस्मिन् व्याख्याने दोषमाह तेषामेवं व्याख्यातॄणां भावश्रुतस्य सर्वथैवाऽभावः प्राप्नोति, यतो वक्तृगतं विवक्षोपयोगज्ञानं तैरेव मतित्वेन व्याख्यातम्, अन्यथा शब्दस्य मतिपूर्वकत्वाभावात्, श्रोतुरपि शब्दं श्रुत्वा प्रथमं यदवग्रहादिज्ञानं तत् तावद् मतिरेव, ऊर्ध्वमपि च तस्या भावश्रुतं नाभ्युपगन्तव्यम्, 'मतिपूर्वं भावश्रुतम्' इत्यस्मत्पक्षवर्तित्वप्रसङ्गात्। यदशृण्वतोऽभाषमाणस्य चाऽनुप्रेक्षादिष्वन्तर्जल्पारूपितं ज्ञानं विपरिवर्तते तद्भावश्रुतं भविष्यतीति चेत् / तदयुक्तम्, यतस्तदपि यद्यवग्रहाद्यात्मकमतिपूर्वं तदा भावश्रुतं नेष्टव्यम्, अस्मत्पक्षाभ्युपगमप्राप्तेरेव। अथ मतिपूर्वं तद् नेष्यते, तथापि तत् सविकल्पकत्वेन __ [(गाथा-अर्थः) द्रव्यश्रुत मतिपूर्वक है क्योंकि बिना चिन्तन किये कोई नहीं बोलता- ऐसा किसी का कहना है। किन्तु (ऐसा मानने पर) भावश्रुत का (सर्वथा) अभाव हो जाएगा और (फलस्वरूप) (मति व श्रुत में) कोई अन्तर या भेद भी (विचारणीय) नहीं रहेगा।] ___ व्याख्याः- (केचित्-) 'मतिपूर्वक श्रुत' इस आगम-वाक्य का कुछ लोग इस प्रकार व्याख्यान करते हैं। वह (व्याख्यान) क्या है? वह इस प्रकार है- शब्द रूप द्रव्यश्रुत मतिपूर्वक है, न कि भावश्रुत / इसमें युक्ति उनकी यह है- (भाषते यद्...)। चूंकि बिना चिन्तन किये, अनचाहे कोई नहीं बोलता अर्थात् शब्दों का उच्चारण करता है, और क्या बोलना है -इस विषय का जो चिन्तन है वह तो मतिज्ञान ही है- यह तात्पर्य है। इस तरह, उनके मत में द्रव्यश्रुत की मतिपूर्वता सिद्ध होती है। उक्त व्याख्यान में क्या दोष है- इसे बता रहे हैं.. (तेषाम् इत्यादि-)। उन व्याख्यान-कर्ताओं के मत में भावश्रुत का सर्वथा अभाव हो जाएगा, क्योंकि वक्ता का जो भाषण-इच्छा सम्बन्धी उपयोग रूप ज्ञान है, उसे उन्होंने अपनी व्याख्या में स्वयं मति रूप में स्वीकार किया है, अन्यथा शब्द की मतिपूर्वता नहीं हो पाएगी। तथा श्रोता को शब्द सुन कर जो अवग्रह आदि ज्ञान होता है. वह मति ही तो है. उसके बाद भी भावत का होना नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर तो 'मतिपूर्वक भावश्रुत' इस हमारे मत को ही वे मान रहे होते हैं (और तब अपने पक्ष से च्युत होने का दोष उन पर आ जाता है)। ... (पूर्वपक्ष-) न सुनने वाले और न बोलने वाले के विचार करते समय अन्तर्जल्प रूप जो ज्ञान परिणमित होता है, वह भावश्रुत है, (इस प्रकार भावश्रुत के अभाव का दोष निरस्त हो जाता है)। (उत्तर-) आपका यह कहना युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि उक्त (अन्तर्जल्पात्मक ज्ञान) भी यदि अवग्रहादि रूप मतिज्ञानपूर्वक है, तब तो उसे भावश्रुत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वैसा मानने पर आप हमारे ----- विशेषावश्यक भाष्य - - ---- 177