________________ किमिति पुनर्मतिपूर्वमेव श्रुतमुक्तम्?, इत्याह- यद् यस्मात् कारणात् तस्य श्रुतस्य मतिः पूर्वं प्रथममेवोपपद्यते। कुतः?, इत्याह- 'पूरणेत्यादि'। पृधातुः पालन-पूरणयोरर्थयोः पठ्यते, तस्य च पिपर्तीति पूर्वम्, इति निपात्यते। ततश्च श्रुतस्य पूरणात् पालनाच्च मतिर्यस्मात् पूर्वमेव युज्यते, तस्माद् मतिपूर्वमेव श्रुतमुक्तम्। पूर्वशब्दश्चायमिह कारणपर्यायो द्रष्टव्यः, कार्यात् पूर्वमेव कारणस्य भावात्, “सम्यग्ज्ञानपूर्विका (सर्व)पुरुषार्थसिद्धिः" इत्यादौ तथादर्शनाच्च। ततश्च मतिपूर्वं श्रुतमिति कोऽर्थ:?, श्रुतज्ञानं कार्यम्, मतिस्तु तत्कारणम्, कार्य-कारणयोश्च मृत्पिण्ड-घटयोरिव कथञ्चिद् भेदः प्रतीत एवेति भावः // इति गाथार्थः // 105 // पूरणादिधर्मानेव मतेर्भावयन्नाह पूरिजिइ पाविजइ दिजइ वा जं मईए नाऽमइणा। पालिजइ य मईए गहियं इहरा पणस्सेज्जा // 106 // [संस्कृतच्छाया:- पूर्यते प्राप्यते दीयते वा यद् मत्या नाऽमत्या। पाल्यते च मत्या गृहीतमितरथा प्रणश्येत्॥] . (श्रुत की मतिपूर्वकता का विचार) (प्रश्न-) श्रुत को मतिपूर्वक ही क्यों कहा गया है? (उत्तर-) चूंकि श्रुतज्ञान से पूर्व ही मतिज्ञान उत्पन्न होता है। (प्रश्न-) ऐसा क्यों? उत्तर दे रहे हैं- (पूरणपालनभावात्-) पालन व पूरण अर्थ में 'पृ' धातु प्रयुक्त होती है, जो पूरण या पालन करता है- इस अर्थ में 'निपातन' (व्याकरण-प्रक्रिया) से 'पूर्व' शब्द की निष्पत्ति होती है। चूंकि मतिज्ञान श्रुतज्ञान का पूरण (पोषण) या पूर्ति करता है, और वह उसका पालन (स्थिरीकरण) भी करता है, इसलिए उसका श्रुतज्ञान के पूर्व ही होना उपयुक्त होता है। यही कारण है कि 'मतिपूर्वक श्रुत' ऐसा कहा गया। यहां 'पूर्व' पद कारण के पर्याय रूप में प्रयुक्त है- और 'सम्यग्ज्ञानपूर्वक समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि होती है' इत्यादि कथन में 'पूर्व' शब्द का वैसा (कारणभूत सम्यग्ज्ञान का पूर्व में होनायह सूचित करने वाला) प्रयोग देखा भी जाता है। इस तरह, ‘मतिपूर्वक श्रुत' इसका अर्थ क्या है? (उत्तर) श्रुतज्ञान कार्य है, मति उसका कारण है। मिट्टी के पिण्ड और (उसके कार्य) घट की तरह, उक्त कारण (मति) व कार्य (श्रुत) में कथंचिद् (दृष्टिविशेष से) भेद प्रतीत ही है- यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 105 // मतिज्ञान के पूरणकर्तृत्व आदि धर्मों का ही निदर्शन अग्रिम गाथा में भाष्यकार कर रहे हैं- . (106) पूरिज्जिइ पाविज्जइ दिज्जइ वा जं मईए नाऽमइणा। पालिज्जइ य मईए गहियं इहरा पणस्सेज्जा // [(गाथा-अर्थः) चूंकि श्रुतज्ञान मतिज्ञान द्वारा ही पूरित (पोषित), गृहीत और (अन्य को) प्रदत्त किया जाता है, मतिज्ञान के बिना नहीं। मतिज्ञान के बिना तो वह नष्ट ही हो जाएगा।] Na 170 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------