________________ श्रुतनिश्रिता उच्यन्ते, न पुनर्व्यवहारकाले श्रुतानुसारित्वमेतेष्वस्ति, वक्ष्यते च- 'पुव्वं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं, तं सुयनिस्सियं' इत्यादि। यदपि युक्तितोऽपि चेत्याद्युक्तम्, तदपि न समीचीनम्, संकेतकालाद्यकर्णितशब्दपरिकर्मितबुद्धीनां व्यवहारकाले तदनुसरणमन्तरेणाऽपि विकल्पपरम्परापूर्वकविविधवचनप्रवृत्तिदर्शनात्, न हि पूर्वप्रवृत्तसंकेताः, अधीतश्रुतग्रन्थाश्च व्यवहारकाले प्रतिविकल्पन्ते- एतच्छब्दवाच्यत्वेनैतत्पूर्वं मयाऽवगतमित्येवंरूपं संकेतम्, तथाऽमुकस्मिन् ग्रन्थे एतदित्थमभिहितमित्येवं श्रुतग्रन्थं चाऽनुसरन्तो दृश्यन्ते, अभ्यासपाटववशात् तदनुसरणमन्तरेणाऽप्यनवरतं विकल्पभाषणप्रवृत्तेः। यत्र तु श्रुतानुसारित्वं तत्र श्रुतरूपताऽस्माभिरपि न निषिध्यते। तस्मात् श्रुतानुसारित्वाभावेन श्रुतत्वाभावादीहाऽपायधारणानां सामस्त्येन मतिज्ञानत्वाद् न मतिज्ञानलक्षणस्याऽव्याप्तिदोषः, श्रुतरूपतायाश्च श्रुतानुसारिष्वेव साभिलापज्ञानविशेषेषु भावाद् न श्रुतज्ञानलक्षणस्याऽतिव्याप्तिकृतो दोषः। अपरं चाङ्गाऽनङ्गप्रविष्टादिश्रुतभेदेषु मतिपूर्वमेव श्रुतमिति वक्ष्यमाणवचनात् प्रथमं शब्दाद्यवग्रहणकालेऽवग्रहादयः समुपजायन्ते, एते चाऽश्रुतानुसारित्वाद् मतिज्ञानम्, यस्तु तेष्वङ्गाऽनङ्गप्रविष्टश्रुतभेदेषु श्रुतानुसारी ज्ञानविशेषः स श्रुतज्ञानम्। शब्दोल्लेख होना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता, अतः उनका श्रुतानुसारी होना कैसे सम्भव है? (उपर्युक्त प्रश्न का समाधान-) आपका यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि पहले श्रुत-सम्बन्धी संस्कारप्राप्त मतिज्ञान वाले व्यक्ति को ही जो अवग्रह आदि होते हैं, उन्हें श्रुतनिश्रित कहा गया है, न कि व्यवहार-काल में उनमें श्रुतानुसारित्व नहीं है। इसी दृष्टि से आगे (गाथा-169 में) कहा गया है"व्यवहारकाल से पूर्व 'श्रुत' से संस्कारित बुद्धि वाले को, व्यवहारकाल में जो श्रुत-निरपेक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अवग्रह आदि ज्ञान श्रुतनिश्रित है"। और जो आपने कहा कि युक्ति से भी ईहादि की श्रुतानुसारिता असंगत है, तो वह कथन भी आपका ठीक नहीं है, क्योंकि संकेत-काल में सुने हुए शब्द से संस्कारित बुद्धि वालों की, व्यवहार-काल में शब्द के अनुसरण के बिना भी विकल्पपरम्परापूर्वक वचन-सम्बन्धी विविध प्रवृत्तियां होती देखी जाती हैं। जिन्हें पहले संकेत-ज्ञान हो चुका है, या श्रुत-ग्रन्थों का जो अध्ययन कर चुके हैं, उन्हें व्यवहार-काल में ऐसे विकल्पादि नहीं उत्पन्न होते कि अमुक शब्द से वाच्य यह अमुक वस्तु मैंने पूर्व में जानी है और इस प्रकार संकेत का अनुसरण वे नहीं करते, इसी तरह 'अमुक ग्रन्थ में ऐसा कहा गया हैं- इस प्रकार के श्रुतग्रन्थ का अनुसरण भी वे नहीं करते, किन्तु अभ्यास-पटुता के कारण उक्त संकेत व श्रुत के अनुसरण के बिना भी, निरन्तर उनकी विकल्पसहित भाषण की प्रवृत्ति होती है। जहां-जहां श्रुतानुसारिता है, वहां श्रुतरूपता का निषेध हम भी नहीं करते। इसलिए ईहा, अपाय व धारणा- इनमें श्रुतानुसारिता न होने से श्रुतज्ञानता नहीं है जिससे वे सामुदायिक रूप से मतिज्ञान (में ही परिगणित) होते हैं, अतः मतिज्ञान के लक्षण की अव्याप्ति का दोष नहीं होता। इसी तरह, श्रुतानुसारी व शब्दोल्लेखसहित ज्ञान-विशेषों में ही श्रुतरूपता का सद्भाव है, इसलिए श्रुतज्ञान के लक्षण की अतिव्याप्ति का दोष भी नहीं रहता। दूसरी बात, अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट आदि श्रुत के जो भेद हैं, उनमें 'मतिपूर्वक श्रुतज्ञान होता है'- ऐसा आगे कहा जाएगा। अतः 'प्रथमतः शब्दादि के अवग्रह' के समय जो अवग्रह आदि उत्पन्न होते हैं, वे श्रुतानुसारी न होने के कारण मतिज्ञान ही हैं, हां अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट आदि श्रुत 160-...---- विशेषावश्यक भाष्य ---------- EL NA 160 -..