________________ श्रुतावरणक्षयोपशममात्ररूपं भावश्रुतं केवलिदृष्टममीषां मन्तव्यम्, न हि स्वापाद्यवस्थायां साध्वादिः शब्दं न शृणोति, न विकल्पयतीत्येतावन्मात्रेण तस्य श्रुतज्ञानाभावो व्यवस्थाप्यते, किन्तु स्वापाद्यवस्थोत्तरकालं व्यक्तीभवद् भावश्रुतं दृष्ट्वा पयसि सर्पिरिव प्रागपि तस्य तदासीदिति व्यवह्रियते, एवमेकेन्द्रियाणामपि सामग्रीवैकल्याद् यद्यपि द्रव्यश्रुताभावः, तथाऽप्यावरणक्षयोपशमरूपं भावश्रुतमवसेयम्, परमयोगिभिर्दृष्टत्वाद्, वल्ल्यादिष्वाहार-भय-परिग्रह-मैथुनसंज्ञादेस्तल्लिङ्गस्य दर्शनाच्चेति॥ आह- नन सुप्तयतिलक्षणदृष्टान्तेऽपि तावद् भावश्रुतं नावगच्छामः, तथाहि- श्रुतोपयोगपरिणत आत्मा शृणोतीति श्रुतम्, श्रूयते तदिति वा श्रुतमित्यनयोर्मध्ये कया व्युत्पत्त्या सुप्तसाधोः श्रुतमभ्युपगम्यते? / तत्राद्यः पक्षो न युक्तः, सुप्तस्य श्रुतोपयोगाऽसंभवात् / द्वितीयोऽपि न संगतः, तत्र शब्दस्य वाच्यत्वात, तस्याऽपि च स्वपतोऽसंभवादिति। सत्यम्, किन्तु शृणोत्यनेन, अस्माद्, अस्मिन् वेति व्युत्पत्तिरिहाश्रीयते, एवं च श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमो वाच्यः संपद्यते, स च सुप्तयतेः, एकेन्द्रियाणां चाऽस्तीति न किञ्चित् परिहीयते // इति गाथार्थः // 101 // क्षयोपशम रूप भावश्रुत के सद्भाव को केवली भगवान् ने देखा है, वैसा ही इन एकेन्द्रियों में भी मानना चाहिए। निद्रादि की स्थिति में साधु न तो कोई शब्द सुनता है और न ही तद्विषयक विकल्प भी उसे होता है, किन्तु इतने मात्र से उसके श्रुतज्ञान का अभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि निद्रा (से उठने पर, अर्थात् उस) के उत्तरकाल में भावश्रुत की अभिव्यक्ति होती हुई देखी जाती है, और उसके आधार पर, जैसे व्यवहार में ऐसा माना जाता है कि (सुप्त यति के भी) पहले भावश्रुत था, इसी प्रकार से एकेन्द्रियों में भी यद्यपि अपेक्षित सामग्री के न होने से द्रव्यश्रुत का अभाव है, फिर भी वहां आवरण-क्षयोपशम रूप भावश्रुत का सद्भाव मानना चाहिए, क्योंकि परमयोगी (केवली-सर्वज्ञ) तीर्थंकरों ने ऐसा (अपने ज्ञान में) देखा है, और वल्ली (लता, वृक्ष) आदि में आहार-भय-परिग्रहमैथुन संज्ञाओं आदि का तथा उनके चिन्ह का भी प्रत्यक्ष दर्शन होता है। किसी (प्रश्नकर्ता) ने कहा- आपने जो सोए हुए साधु का जो दृष्टान्त दिया, किन्तु हम तो वहां भी भावश्रुत का सद्भाव नहीं मानते, क्योंकि श्रुतोपयोग से परिणत आत्मा जो सुनता है वह श्रुत है, या जो सुना जाय वह श्रुत है- इन दोनों व्युत्पत्तियों में से किस व्युत्पत्ति के आधार पर सोए हुए साधु में श्रुत का सद्भाव मान्य हो सकता है? प्रथम व्युत्पत्ति के पक्ष को मानें तो भी 'श्रुत' का सद्भाव युक्तियुक्त नहीं होता क्योंकि सोए हुए में श्रुतोपयोग सम्भव नहीं है। दूसरी व्युत्पत्ति के पक्ष को मानें तो भी 'श्रुत' का सद्भाव संगत नहीं होता, क्योंकि सोए हुए व्यक्ति के (जो सुना जा सकेऐसे) किसी वाच्य शब्द की सम्भावना नहीं की जा सकती। (समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं-) आपका कहना सही है। किन्तु हमें 'श्रुत' की यह व्युत्पत्ति यहां स्वीकार है- जिसके द्वारा, जिससे या जिसमें सुनता है- वह श्रुत है। इस प्रकार, 'श्रुत' का (उक्त व्युत्पत्ति के अनुरूप) अर्थ 'श्रुतज्ञानावरण-सम्बन्धी क्षयोपशम' होता है, और वह सोए हुए यति में भी है, और वही (क्षयोपशम रूप श्रुत) एकेन्द्रियों में भी है- इसलिए उक्त लक्षण में किसी प्रकार की क्षति (दोष-सम्भावना) नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 101 // Mia ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 163 र (स