________________ अत्रोत्तरमाह जह सुहुमं भाविन्दियनाणं दव्विंदियावरोहे वि। तह दव्वसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं॥१०३॥ [संस्कृतच्छाया:- यथा सूक्ष्मं भावेन्द्रिय ज्ञानं द्रव्येन्द्रियावरोधेऽपि तथा द्रव्यश्रुताभावे भावश्रुतं पृथ्व्यादीनाम्॥] इह केवलिनो विहाय शेषसंसारिजीवानां सर्वेषामप्यतिस्तोक-बहु-बहुतर-बहुतमादितारतम्यभावेन द्रव्येन्द्रियेष्वसत्स्वपि लब्धीन्द्रियपञ्चकावरणक्षयोपशमः समस्त्येवेति परममुनिवचनम् / ततश्च यथा येन प्रकारेण पृथिव्यादीनामेकेन्द्रियाणां श्रोत्र-चक्षुर्घाणरसनलक्षणानां प्रत्येकं निर्वृत्यु- पकरणरूपाणां द्रव्येन्द्रियाणां तत्प्रतिबन्धककर्मावृतत्वादवरोधेऽप्यभावेऽपि सूक्ष्ममव्यक्तं लब्ध्युपयोगरूपं श्रोत्रादिभावेन्द्रियज्ञानं भवति, लब्धीन्द्रियावरणक्षयोपशमसंभूताऽणीयसी ज्ञानशक्तिर्भवतीत्यर्थः। तथा तेनैव प्रकारेण द्रव्यश्रुतस्य द्रव्येन्द्रियस्थानीयस्याऽभावेऽपि भावश्रुतं भावेन्द्रियज्ञानकल्पं पृथिव्यादीनां भवतीति प्रतिपत्तव्यमेव। दूसरों को समझाने तथा अन्य-उच्चारित शब्द को सुनने रूप किया गया कार्य देखा जाता है, उसको देख कर यह अनुमान करते हैं कि सोए हुए में भी लब्धि रूप से भावश्रुत का सद्भाव रहा है। किन्तु एकेन्द्रिय (रूप दार्टान्तिक) में तो भाषालब्धि व श्रोत्रलब्धि दोनों ही नहीं हैं, अतः कथमपि भावश्रुत का कार्य उपलब्ध नहीं होता, तब फिर उसमें भावश्रुत का सद्भाव कैसे घटित होता है? (घटित न होने पर लक्षण में अव्याप्ति पुनः ज्यों की त्यों रह ही गई) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 102 // : अब पूर्वोक्त शंका का प्रत्युत्तर प्रस्तुत कर रहे हैं (103) जह सहुमं भाविन्दियनाणं दव्विंदियावरोहे वि। तह दव्वसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं // [(गाथा-अर्थः) जैसे द्रव्येन्द्रिय-सम्बन्धी अवरोध के होने पर भी, सूक्ष्म भावेन्द्रियज्ञान होता ही है, वैसे ही द्रव्यश्रुत के अभाव में भी पृथ्वी आदि (एकेन्द्रियों) में भावश्रुत का सद्भाव है।] . व्याख्याः- केवलियों को छोड़कर शेष समस्त संसारी जीवों में द्रव्येन्द्रियों के न रहने पर भी, न्यूनाधिक तर-तमभाव (तारतम्य) से किसी में बहुत कम, किसी में बहुत, किसी में अधिक बहुत या अत्यधिक बहुत मात्रा में पांच लब्धि' रूप ‘पंचेन्द्रियावरण-सम्बन्धी क्षयोपशम' (रूप भावश्रुत) होता ही है- ऐसा परममुनि (जिनेन्द्र देव) का कथन है। इस प्रकार, जैसे, यानी जिस प्रकार से, पृथ्वी आदि एकेन्द्रियों के श्रोत्र-नेत्र-प्राण-रसना- इन चार इन्द्रियों में से प्रत्येक के निर्वृत्ति-उपकरण रूप द्रव्येन्द्रियों का, उनके प्रतिबन्धक कर्मों के आवरण होने के कारण, अवरोध यानी अभाव होने पर भी सूक्ष्म- अव्यक्त लब्धि-उपयोग रूप श्रोत्र आदि भावेन्द्रिय रूप ज्ञान का सद्भाव है, अर्थात् लब्धीन्द्रियसम्बन्धी आवरण के क्षयोपशम से होने वाली अणीयसी (सूक्ष्मतम, अप्रकट) ज्ञानशक्ति का सद्भाव है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि (एकेन्द्रियों) में द्रव्येन्द्रिय-तुल्य द्रव्यश्रुत के अभाव होने पर भी, भावेन्द्रियतुल्य भाव श्रुत का सदभाव होता है-ऐसा मानना ही पड़ेगा। ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 165 12