________________ आह- ननु नियतोऽर्थाभिमुख एव भवति, ततो नियतत्वविशेषणमेवाऽस्तु. किमाभिमुख्यविशेषणेन? / तदयुक्तम्, द्विचन्द्रज्ञानस्य तैमरिकं प्रति नियतत्वे सत्यप्यर्थाभिमुख्याभावादिति। एवं च सति अर्थाभिमुखो नियतो यो बोधः स तीर्थकर-गणधरादीनामभिनिबोधो मतोऽभिप्रेतः। 'सो चेवाभिणिबोहियमिति' स एवाऽभिनिबोध एवाऽऽभिनिबोधिकम्, विनयादिपाठादभिनिबोधशब्दस्य "विनयादिभ्यष्ठक" [पा.-५/४/३४] इत्यनेन स्वार्थ एव ठक्प्रत्ययः, यथा विनय एव वैनयिकमिति / अहव जहाजोगमाउजंति' अथवा नेह स्वार्थिकप्रत्ययो विधीयते, किन्तु यथायोगं यथासंबन्धमायोजनीयं- घटमानसंबन्धानुसारेण स्वयमेव वक्तव्यमित्यर्थः, . तद्यथा- अर्थाभिमुखे नियते बोधे भवमाभिनिबोधिकम, तेन वा निर्वृत्तं, तन्मयं वा, तत्प्रयोजनं वाऽऽभिनिबोधिकम, तच्च तज्ज्ञानं चाऽऽभिनिबोधिकज्ञानम् // इति गाथार्थः // 8 // (शंका-) 'नियत' तो वही होता है जो अर्थाभिमुख हो, तो फिर 'नियत' इतना ही कहना पर्याप्त था, 'अभिमुख' यह विशेषण पृथक् क्यों दिया गया? (उत्तर-) आपका प्रश्न युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि (यदि 'अर्थाभिमुख' यह नहीं कहते तो) तैमरिक (तैमरिक यानी आंख में अंधेरा आने आदि के दोष से युक्त) व्यक्ति को जैसे आकाश में दो चन्द्र दिखाई देते हैं, वहां नियतता होते हुए भी 'अर्थाभिमुखता' नहीं है, [अर्थात् वहां दो चन्द्र रूप अर्थ वस्तुत हैं ही नहीं, अतः उनके प्रति अभिमुखता कैसे हो सकती है?] अतः वहां भी सत्य 'ज्ञान' की अतिव्याप्ति होने लगेगी। इस प्रकार अर्थाभिमुख और नियत दोनों विशेषणों से युक्त ज्ञान ही तीर्थंकर-गणधर आदि द्वारा 'अभिनिबोध' ज्ञान रूप से स्वीकृत है। वह अभिनिबोध ही आभिनिबोधिक है। अभिनिबोध शब्द का (संस्कृत व्याकरण शास्त्र में) विनयादि गण में पाठ किया गया है। (विनय और वैनयिक- इन दोनों का एक ही अर्थ है। 'विनय' शब्द से, उसके स्वाभाविक अर्थ में ही, उक्त सूत्र से 'ठक्' प्रत्यय होता है और 'ठक्' के स्थान पर 'इक', तथा विनय के 'इ' को वृद्धि- 'ऐ' होकर वैनयिक' शब्द सिद्ध किया जाता है।) इसलिए जैसे 'विनय ही वैनयिक' के अनुसार 'अभिनिबोध ही आभिनिबोधिक' कहा जाता है। यानी अभिनिबोध पद से स्वार्थ में 'विनयादिभ्यः ठक्' (पाणिनिसूत्र-5/4/34) इस सूत्र से ठक् प्रत्यय होकर 'आभिनिबोधिक' पद की सिद्धि होती है। अथवा यथायोग्य नियोजित करना चाहिए- अर्थात् यहां स्वार्थिक प्रत्यय न मान कर भी आभिनिबोधिक पद की यथायोग्य, अर्थात् जैसा घटित होता दिखाई दे, तदनुरूप स्वयं सिद्धि की जा सकती है, जैसे- अर्थाभुिख नियत बोध 'अभिनिबोध' में होने वाले ज्ञान को आभिनिबोधिक कहा जा सकता है (यहां 'तत्र भवः' इस सूत्र से 'वहां होने वाला' इस अर्थ में प्रत्यय माना गया है)। इसी प्रकार, अभिनिबोध द्वारा निर्मित, या तन्मय (अभिनिबोधमय) या अभिनिबोध रूप प्रयोजन वाला- इन अर्थों में भी प्रत्यय करते हुए 'आभिनिबोधिक' पद की सिद्धि की जा सकती है, और उसे 'ज्ञान' का विशेषण माना जा सकता है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 8 // a 126 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------