________________ 'तओवातमिति' -न केवलं'अत्थाभिमुहो नियओ' इत्यादिव्युत्पत्त्याऽऽभिनिबोधिकमुक्तम्, किन्तु यतः'तं तेण तओ तम्मि' इत्यादि व्युत्पत्त्यन्तरमस्ति, ततोऽपि कारणात् तदाभिनिबोधिकमुच्यत इत्यर्थः। नन्वात्म-क्षयोपशमयोराभिनिबोधिकशब्दवाच्यत्वे ज्ञानेन सह कथं समानाधिकरणता स्यात्?। सत्यम्, किन्तु ज्ञानस्याऽऽत्माश्रयत्वात्, क्षयोपशमस्य च ज्ञानकारणत्वादुपचारतोऽत्रापि पक्षे आभिनिबोधिकशब्दो ज्ञाने वर्तते, ततश्चाऽऽभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चाभिनिबोधिकज्ञानमिति समानाधिकरणसमास इत्यदोषः। अथ श्रुतव्युत्पत्तिमाह- 'तं तेणेत्यादि' श्रूयत आत्मना तदिति श्रुतं शब्दः, अथवा श्रूयतेऽनेन श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमेन, श्रूयते तस्मात् क्षयोपशमात्, श्रूयते तस्मिन् क्षयोपशमे सतीति श्रुतं क्षयोपशमः। 'सुणेइ सो वत्ति' ति शृणोतीति श्रुतम्, असावात्मेति वा व्युत्पत्तिरित्यर्थः। 'सुयं तेणेति' येनैवं व्युत्पत्तिस्तेन कारणेन श्रुतमुच्यत इत्यर्थः। इह च शब्दस्य श्रुतज्ञानकारणत्वात् क्षयोपशमस्य तद्धेतुत्वादात्मनश्च कथञ्चित् तदव्यतिरेकादुपचारतः श्रुतं च तज्ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् // इति गाथार्थः // 81 // “(ततो वा तत्) यहां 'वा' (अथवा) इस पद (से पूर्वोक्त व्युत्पत्ति के अतिरिक्त अन्य विकल्पों के उपस्थापन का संकेत है, वह इस प्रकार) से सूचित है- (अभि=) अर्थाभिमुख, (नि=) जो नियत (निश्चित) बोध है- वह अभिनिबोध (या आभिनिबोधिक) है"-ऐसी व्युत्पत्ति करते हुए (पूर्व गाथा में) आभिनिबोधिक शब्द का जो अर्थ बताया गया है, उतना ही अर्थ नहीं है, अपितु अन्य व्युत्पत्तियां भी हैं, और उसके कारण या उसके आधार पर भी 'आभिनिबोधिक' का निर्वचन किया जाता है। ___ (यहां शंका की जा रही है-) यदि आभिनिबोधिक शब्द के ये दो अर्थ हैं- आत्मा व क्षयोपशम, तो ज्ञान के साथ उनकी समानाधिकरणता कैसे सम्भव है (और तब आभिनिबोधिक ज्ञान यह प्रयोग कैसे होगा)? इस शंका का समाधान इस प्रकार है- आपका कथन ठीक है, किन्तु चूंकि आत्मा ज्ञान का आश्रय है और क्षयोपशम भी ज्ञान का कारण है, इसलिए उपचार से ज्ञान को भी आभिनिबोधिक पद से कहा जाता है। फलस्वरूप, (समानाधिकरणता के कारण) आभिनिबोधिक जो ज्ञान- यानी आभिनिबोधिक ज्ञान -यह कथन निर्दोष (सिद्ध होता) है। . अब श्रुत की व्युत्पत्ति की जा रही है- (तत् तेन) जो आत्मा द्वारा सुना जाए, उस शब्द को 'श्रुत' कहते हैं। अथवा जिससे सुना जाय, या जिसके (अव्यवहित अनन्तर) होने से सुना जाय, वह श्रुतज्ञानावरण-सम्बन्धी क्षयोपशम भी श्रुत (कहा जाता) है। (श्रृणोति सः वा) अथवा जो सुनता है, वह यानी आत्मा श्रुत है- यह भी व्युत्पत्ति है, यह तात्पर्य है। (श्रुतं तेन-) चूंकि उक्त व्युत्पत्ति है। इस कारण से (आत्मा या क्षयोपशम को) श्रुत कहा गया है। शब्द श्रुत-ज्ञान का कारण है और (श्रुतज्ञानावरणसम्बन्धी) क्षयोपशम भी ज्ञान में हेतु है, और ज्ञान व आत्मा का कथंचिद् अभेद है, इस दृष्टि से उपचार से ज्ञान को 'श्रुत' कह दिया जाता है और श्रुत जो ज्ञान वह श्रुतज्ञान- यह कथन संगत होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 81 // Ma 128 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------